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वर्तमान परिदृश्य में मीडिया और समाज

Tags:   -डॉ सरिता पाण्डेय (नवोत्थान लेखसेवा, हिन्दुस्थान समाचार)
Publised on : 02 April 2014 Time: 22:40

प्रेस को समाज के ‘आँख और कान’ कहा गया है, क्यों कि अन्य संचार साधनों के समान ही यह नागरिकों को सूचनायें प्रदान करने में अत्यंत शक्तिशाली भूमिका निभाता है।लोकतांत्रिक राज्यतंत्र में जानकारी प्राप्त करते रहने का अधिकार नागरिकों का मौलिक अधिकार है। जानकारी और पर्याप्त सूचनाओं की सहायता से ही वह निर्णय निर्माण प्रक्रिया में अपनी निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। इसी के परिणामस्वरूप व्यक्ति को राजनीतिक व्यवस्था में उचित स्थान प्राप्त होता है। राजनीतिक चेतना का निर्माण होता है, राजनीतिक संकस्कृति का विकास होता है।राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में तीव्र और दूरगामी परिवर्तन लाने में भी प्रेस की भूमिका अत्यंत मौलिक है। यह कहा जाता है, कि कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है, अतः वह एक नवीन युग के सूत्रपात में अधिक सहायक हो सकती है। इस रूप प्रेस किसी राष्ट्र के के भाग्य को आकार प्रदान करने और उसके इतिहास को प्रभावित करने वाला महत्वपूर्ण माध्यम है।प्रेस का कार्य अत्यंत व्यापक है। यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी प्रकार के मूल्यों को हस्तांतरित करता है, शांति को प्रोत्साहित करता है, सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखता है, उसे सामंजस्य प्रदान करता है, व्यक्ति के अधिकारों और उसकी स्वतंत्रता का अभिरक्षण करता है, जनता की राजनीतिक तौर पर जागृत करता है, उनमें सामाजिक चेतना उत्पन्न करता है, उनकी कठिनाईयों को उजागर करता है, और उनके निवारण के लिए प्रयत्न करता है। प्रेस जनता को सूचित करता है, शिक्षित करता है, उनका मनोरंजन करता है, ज्ञानवर्धन करता है, उनके विचारों का प्रतिनिधित्व करता है उनकी जीवन-शैली को प्रभावित करता है, दृष्टिकोणों को आकार प्रदान करता है, उनके अतीत को प्रकाशित करता हे, वर्तमान का विश्लेषण करता है और भविष्य की दिशा निर्धारित करता है। प्रेस को समाज का मित्र, दार्शनिक और पथप्रदर्शक कहा जा सकता है। इस प्रकार प्रेस की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है और इसका उत्तरदायित्व इतना व्यापक और विशिष्ट है, कि इसे उचित ही ‘सरकार का चतुर्थ अंग’ कहा जाता है।इस भूमिका में प्रेस जनमत प्रकाशित ही नहीं करता, तैयार भी करता है। अखबारों ने शासन को संभाला भी है और उखाड़ा भी है, उदाहरण के लिए बोफोर्स घोटाले पर राजीव सरकार को हराने और मण्डल आयोग पर वी.पी. सिंह के विरूद्ध वातावरण तैयार करने में प्रेस की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। हाल ही में विभिन्न क्षेत्रों में संबंधित कई हस्तियों को प्रेस की सक्रियता के कारण ही कारावास तक पहुँचाया जा सका है।विकसित पाश्चात्य देशों की भांति ही अविकसित और विकासशील देशों में भी सरकार और प्रेस के बीच यह संघर्ष का मुद्दा बन कर उभरता है कि किस प्रकार की सूचनाओं को सार्वजनिक बनाया जाय और किन को छिपाया जाय। यह संघर्ष इस सीमा तक बढ़ सकता है और कभी-कभी इनकी परिणति वैधानिक संरक्षण के माध्यम से प्रेस स्वतंत्रता को अभिवृद्धि में भी देखी जा सकती है। जिस व्यवथा में प्रेस को निर्भीकतापूर्वक समाचार छापने की स्वतंत्रता नहीं वहाँ के पत्र-पत्रिकायें श्वासविहीन, निर्जीव शरीर के समान होंगे।प्रेस की स्वतंत्रता वास्तव में प्रेस के माध्यम से व्यक्तियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही है, जैसा कि विलियम ब्लैकस्टोन ने 1789 में अववधारणा को स्पष्ट करते हुये कहा ‘‘प्रेस की स्वतंत्रता एक स्वतंत्र राज्य की प्रकृति के लिये अनिवार्य है, परन्तु इसका तात्पर्य प्रशासन पर पूर्व प्रतिबंधों के अभाव से है न कि अपराधी विषयों के प्रकाशन पर दण्ड के अभाव से प्रत्येक स्वतंत्र व्यक्ति को जनता के सामने अपनी भावनायें रखने का निःसंदेह अधिकार है, इस पर प्रतिबंध का अर्थ प्रेस की स्वतंत्रता का नाश है, परन्तु यदि वह अनुचित अवैध, और दुस्साहसी प्रकाशन करता है तो उसे उसके परिणाम भुगतने के लिये भी तैयार रहना चाहिए।’’मीडिया की स्वतंत्रता का सवाल प्रेस की स्वतंत्रता के सवाल प्रेस की स्वतंत्रता के सवाल से भिन्न है। भारत का पहला समाचार पत्र ‘हिन्दी गजट’ ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरूद्ध गर्जना करते हुये निकला था और ‘जेम्स आगस्टहिकी’ को इसके लिये जेल भी जाना पड़ा था। नया मीडिया का पदार्पण इस तरह नहीं आया, वर्तमान स्थितियों में ऐसा कभी नहीं होगा कि किसी टी.वी. संघर्ष के सिर्फ दृष्य दिखा सकता है, स्वयं कभी नहीं लड़ सकता। टी.वी. सामान्यतः अधिकारिधक लाभ की दौड़ में शामिल विज्ञापनदाता बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों की कठपुतली है। यहाँ तक कि राष्ट्रीय चैनल भी सरकारी रंगमंच होते हैं या विदेश प्रसारण चैनलों के अनुसरणकर्ता।इस प्रकार मीडिया की स्वायत्तता यदि वहाँ कुछ आदर्शों और मूल्यों से प्रतिबद्धता न हो, तो वस्तुतः यह अनियंत्रित बाजार की आक्रामक उन्मुक्तता का ही दूसरा रूप है। बाजार मीडिया के समाचारों को वस्तुपरक और विस्तृत होने नहीं देता, उल्टे लजीज बना देता है। एविन्जटपोल देखकर अधिकांश मतदाता यह सोचते रह जाते हैं, कि वे इस आम राय में आखिरकार कहाँ शामिल थे। यह पोल की ढोल है वर्तमान मीडिया सूचना के अधिकार का कई बार दुरूपयोग करता है और हिंसा विद्धेष का उपकरण बन जाता है। दूसरे वह जितनी सूचनायें देता है उनसे कई गुना अधिक सूचनाओं को दबाता है।टी.वी. और इंटरनेट के माध्यम से पोर्नोग्राफी और अश्लीलता को घर-घर ले जाने की तैयारी है। मीडिया ने निजी और सार्वजनिक के अंतर को लगभग समाप्त कर दिया है। इसके अलावा साइबर जनतंत्र में अपराध बढ़े हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने पूरे समाज में कामुकताओं के प्रसंगों को इतने कोणों से दिखा चुका है कि लोगों का अश्लीलता के प्रति सामान्य रोष भी समाप्त हो गया है। समाज को पुर्नजाग्रत करने की भूमिका का कार्य भी अब किसे सौंपा जाये यह चिंतनीय है।सामान्यतः आज का मीडिया मानव मस्तिष्क को सूचना भंडार बनाता है, पर ज्ञान नहीं देता, आलोचनाशक्ति नहीं देता, अहसास नहीं देता। क्या हिन्दी मीडिया के संसार में राष्ट्रीय और आधुनिक पुर्नजागरण संभव है, एक ऐसा पुर्नजागरण जो हमारे राष्ट्रीय आधुनिक आदेशों में नई जान पैदा करें ? व आदर्श जो विकसित होने से पहले मुरझा गये, क्या फिर खिल सकते हैं ? एक ही रास्ता बचा है-भारतीय भाषाई पत्रकारिता को पुनः अपनी स्वतंत्र रीढ़ बनानी होगी, पत्रकारों को राजनीति और बाजार द्वारा सौंपी खबरों से परे भी स्वतंत्र होकर सोचना होगा और सम्पूर्ण लेखक वर्ग को कुछ बुनियादी मुद्दों पर व्यापक एकता प्रदर्शित करनी होगी।हमारा जीवन मीडिया के लिये नहीं है, बल्कि हमारे जीवन के लिए मीडिया है। मीडिया की आलोचना का केन्द्रीय परिपेक्ष्य यही होना चाहिए। मीडिया के जरिये सत्ता पर और सत्ता के जरिये मीडिया पर कब्जा करने की होड़ मची हुई है।अतः मीडिया और इसकी हलचलों की व्याख्या जनता के अनुभव की रोशनी में आनी चाहिए। वे बार-बार यह अहसास भी पैदा कराना चाहते हैं, कि श्रोता-दर्शक, पाठक वर्ग कितना दयनीय और विकल्पहीन है। जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मनुष्य की रचनात्मकता और स्वतंत्रता पर मौन आक्रमण की तरह है। उसे आज के बुद्धिजी0ी और लेखक महज एक रहस्यात्मक यंत्र के रूप में नहीं बल्कि ठोस विचारधारात्मक हमले के रूप में देखों और उसकी चुनौती को स्वीकार करें।मीडिया की बढ़ती निरंकुशता को साधने का क्या उपाय है? इस पर भी बुद्धिजीवियों को निराकरण युक्त विचार खोजना होंगे। ऐसी राह तलाशनी होगी, जिससे साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। आपसी सहमति और सर्वसम्मति बनाना आवश्यक है, क्योंकि समाज और समय के अनुसार स्वीकार्यता एवं अस्वीकार्यता परिवर्तित होती रहती है। मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए प्रेस काउंसिल का गठन किया गया है, किंतु पर्याप्त अधिकारों के अभाव में यह दंतविहीन साबित हुई। व्यक्ति एवं संस्था की प्रतिष्ठायें यह मीडिया से हानि पहुंचती है तो हमारे संविधान में उसकी शिकायत सुनने और उसके निराकरण के लिये संविधान में सशक्त नियमों का एवं संस्था का होना अनिवार्य है। भारतीय संविधान में व्यक्ति की अभिव्यक्ति एवं मीडिया की अभिव्यक्ति के लिये अलग-अलग कानून हों, ऐसा हमारी सरकार को प्रयत्न करना चाहिए। प्रेस काउंसिल को शक्तिशाली एवं अधिकार सम्पन्न बनाने के सार्थक प्रयास होने चाहिए।


 

   

News source: U.P.Samachar Sewa

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