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  अन्ना का राजनैतिक विकल्प सभी दलों के लिये खतरा
 

यह भारतीय लोकतंत्र के अभ्युदय का वह दौर है जिसमें यदि जनता सच व झूठ के प्रति सच में संवेदनशील हो गई तो वह दिन दूर नहीं कि ‘शांति और अहिंसा के दम पर सत्ता का बदलाव समग्र कांति के आंदोलन से कई कदम आगे का एक ऐतिहासिक आंदोलन सिद्ध होगा

  -आनन्द शाही- Anand Shahi
Tags: Anna Hajare, Second Political Revolution in India,
Publised on : 02 August 2012, , Time: 16:48 

आखिर वही हुआ जो इस देश के ज्यादातर नेता और दल नहीं चाहते थे। दकियानूसी राजनीति से तंग आ चुकी जनता के एक मात्र पैरोकार बन कर उभरे अन्ना हजारे और उनके साथियों के राजनैतिक दल बनाने के प्रस्ताव के सार्वजनिक होते ही देश के सुविज्ञ लोगों की एक बडी आबादी ने मोबाईल के जरिये ही सही जबर्दस्त जनमत का उदाहरण दिया और 90 फीसदी से ज्यादा लोगों ने इस प्रस्ताव का समर्थन कर दिया है सोशल नेटवर्किंग के जरिये भारी समर्थन भी काबिले गौर है। केवल जी न्यूज पर मात्र आधे घंटे से कम समय में 50000 से ज्यादा लोगों ने अपनी महत्वपूर्ण राय भेजी।

23 लोगों द्वारा हस्ताक्षरित जिस प्रपत्र के अनुपम खेर के पढने बाद देश को अब तक बहला फुसला रहे दलों में तहलका मच गया उसमें प्रस्ताव रखने वाले देश की उन नामचीनों का नाम भी ‘ारीक है जिनके प्रति जनता का भरोसा नेताओं से कही ज्यादा है, लिंगदोह,वी.के सिंह सरीखे लोग हैं जो सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता के खिलाफ राजनैतिक परिवर्तन की जरूरत मानते हैं। हो भी क्यो नहीं, कल तक वायदे कर मुकरने के अलावा भ्रष्टाचार के आरोपीयों को महिमामंण्डित करने वाली यूपीए सरकार ने अन्ना के मौजूदा आंदोलन को अहं और घमण्ड में कुछ यों दरकिनार कर दिया जैसे केजरीवाल,गोपाल राय,मनीष सिसोदिया जैसे अनशनकारी मरते हों तो मरें उसे कोई लेना देना नहीं। कांग्रेस को कहीं न कहीं ये लगने लगा था कि अन्ना का ये आंदोलन जनसमर्थन के बगैर चल रहा है और वहां वैसी भीड नहीं होगी जैसी पहले हुई। ‘शायद सरकार का ये दंभ जल्द दूर हो जाये क्योकि अन्ना का अंादोलन भीड से परे भी आम आदमी का आंदोलन है जिसे दाल भात और दो जून की रोटी में जूझने के बाद बाहर जाने का वक्त नहीं मिलता, जिसे सही पहचान कर टीम अन्ना ने देश को राजनैतिक विकल्प देने की तैयारी ‘शुरु कर दी है, जो शायद इस देश की बडी आबादी की जरूरत बन गई है।

अमूमन देश के हर दल के पेट में टीम अन्ना की घोषणा से खलबली मच गई है वो इसलिए भी कि इस देश में ये दल अपने स्वार्थों के मध्य इस तरह फंसे हैं कि वे आंतरिक रूप से पूरी तौर पर कमजोर हैं कि उसे बनाने बिगाडने में हीे इनका पूरा चिंतन व उर्जा लगी रहती हैं, इन्हे जनतंत्र,जनतंत्र की भावना और उसके संरक्षण से कोई मतलब ही नहीं। जाति व धर्म के नाम पर राजनीति की दुकान चलाती रहने वाली पार्टियां संविधान की किताब और चुनाव आचार संहिता में जाति व धर्म से परहेज का नाम लेती है पर कांग्रेस गृह मंत्री बनाती है तो दलित का प्रचार कराती है, कोई अति पिछडा , अति दलित,कोई अल्पसंख्यकों के नाम पर वोट मांगता है, यह क्या है! यह कैसी समानता का देश। इंदिरा के जमाने से ही इस देश में सरकार के खिलाफ बोलना गुनाह है। यहां चारा घोटाले से लालू,आय से अधिक मामले में मायावती -मुलायम बच जाते है। अफजल को फांसी इसलिए नहीं मिलती कि उससे अल्पसंख्यक वोट प्रभावित होगा, केजरीवाल और साथियों से मिलने में कांग्रेस के नेताओं का सिर नीचा होता है वहीं कसाब जैसे लोग भारत की जेलों में मोटे हो रहे हैं।

कहीं प्रधानमंत्री बदलने की मारामारी तो कहीं प्रधानमंत्री बनने की हर्डल रेस, कहीं मुसलमानों का हितैसी दिखने की कवायद तो कहीं हिन्दूओं के नाम पर वोट बटोरने की कोशिश....... इसी दर्द ने आज राजनीति को इस मुकाम पर ला दिया कि एक ताकतवर विकल्प जिसे कमजोर दिखाने की कोशिश कल से सभी दल व नेता करेंगे इस देश की जनता के बीच से खडा होने को है।

लालू प्रसाद यादव जिसे अन्ना टीम की घोषणा से काफी दर्द हुआ उन्हें निश्चित तौर पर डर लगेगा। अब महापुरूषों के नाम पर अपनी मूर्ति लगाकर जबरिया महास्त्री बनने की कोशिश में लगी मायावती को कष्ट होगा जिस पर 100 से ज्यादा घोटालों का आरोप है। अब कष्ट होगा बाल ठाकरे को जो यूपी बिहार के लोगों को भाषा व क्षेत्र के नाम पर पिटते देख सारा पुरूषार्थ भूल जाते हैं ।

अन्ना का स्वयं के चुनाव न लडने की घोषणा और मजबूत विकल्प बनाने के लिए संघर्ष करना एक बडा त्याग है जिसे देश की जनता को सिर आंखों पर लेना चाहिए। यह भारतीय लोकतंत्र के अभ्युदय का वह दौर है जिसमें यदि जनता सच व झूठ के प्रति सच में संवेदनशील हो गई तो वह दिन दूर नहीं कि ‘शांति और अहिंसा के दम पर सत्ता का बदलाव समग्र कांति के आंदोलन से कई कदम आगे का एक ऐतिहासिक आंदोलन सिद्ध होगा।

यहां चुनौती केवल टीम अन्ना पर ही नहीं पूरे देश पर है क्योंकि यह तथ्य परक है कि देश प्रेमी व चरित्रवान प्रत्याशी कैसे चुने जायेंगे जब अभी 162 घोर अपराधी संसद में हैं। भारत में इस बात की गारंटी क्या कि जो जीत कर जायेंगे वे भ्रष्ट नहीं होंगें, कहीं जे0पी0 आंदोलन सा हाल न हो कि लालू व मुलायम जैसे स्व केंद्रित नेता मिल जायें। अगर सच में जनता को बदलाव चाहिए और उसने अन्ना के आंदोलन को अपने दम पर चलाकर इस मुकाम तक पहुंचाया है तो जनता को पारदर्शिता के साथ अन्ना के आंदोलन के बाद उनके दल को प्रचारित प्रसारित करना होगा व उस कुसंस्कृति के बहिष्कार में जोर लगाना होगा जहां पैसे से चुनाव होता हो और प्रतिनिधि मत खरीदने की क्षमता के आधार पर नेता बनता ह ।

अन्ना के दल से कम से कम इस बात की अपेक्षा तो रहेगी ही कि उनके वहां नेता गणेश परिक्रमा के बजाय पराक्रम से बनेंगे और चुनाव जीतने के लिए अन्ना की पार्टी फंड मैनेजरों के हाथों का खिलौना नहीं बनेगी। यह भी गुंजाईश इसी दल में हो कि नेता मंच पर जो बोलें वह सच में उनके अंदर न हो। राम रहीम की मारामारी, हिन्दू बडा या मुस्लिम की चुनौती के बजाय अफजल मरा या जिंदा रहेगा, कसाब को फांसी हो, कानून जनता के लाभ के लिए बने पार्टियो, नेताओं और अधिकारियों के दुरूपयोग के लिए नहीं ऐसे मुद्दों का समावेश हों।

उम्मीदवारों के चयन में अन्ना को मंजे राजनेताओं को समेटने के बजाय उन सामान्य चेहरों की तलाश करनी चाहिए जिसे क्षेत्र व जनता के दर्द का ज्ञान हो,इससे अन्ना के दल की प्रगति निर्बाध होगी और अंदरूनी राजनीति से वे बचे रहेंगें। यही नहीं अन्ना के दल को चुनाव मैदान में उतारने से पूर्व आम आदमी से रायशुमारी के साथ नेता चुनना होगा। धन के मामले में अन्ना के दल को समझौतावादी न बनकर सीमित संसाधनों विशेषकर जनसंग्रह के दम पर आगे बढने की बात सोचनी होगी। कुल मिलाकर भारतीय लोकतंत्र के लिए इस ‘शुरूआत को बेहतर कहना गलत नहीं होगा। असल में यह आंदोलन दूसरी आजादी का आंदोलन बन ही गया।

लेखकः आनन्द शाही, Anand Shahi Cont- 9454583655
 

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News source: U.P.Samachar Sewa

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