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  भक्ति आंदोलनः पुनर्पाठ
  -डॉ॰ वेदप्रकाष अमिताभ
Tags: पुस्तक समीक्षा,
Publised on : 03 July 2012, , Time: 10:23 
मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन समन्वय की विराट चेश्टा है, विरूद्धों का सामंजस्य है और हमारी साझी संस्कृति का वटवृक्ष है। विद्वान इतिहासकार प्रोफेसर “ाहाबुद्दीन इराकी ने अपनी कृति ‘मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन (सामाजिक एवं राजनैतिक परिप्रेक्ष्य)’ में भक्ति विचारधारा और आंदोलन की विभिन्न धाराओं एवं समाज पर उसके प्रभाव का ऐतिहासिक संदर्भ में वस्तुनिश्ट विष्लेशण किया है। यह कृति उनके अंग्रेजी में लिखे गए गं्रथ ‘भक्ति मूवमेंट इन मिडीवल इंडियाः सोषल एण्ड पॉलिटिकल पर्सपेक्टिव्स’ का हिन्दी रूपान्तर है। पुरोवाक् में पद्भविभूशण गोपालदास ’नीरज’ का यह मंतव्य सटीक है कि यह पुस्तक अनूदित होते हुए भी मौलिक कृति सरीखे भाव-सौन्दर्य की प्रतीति कराती है।

यद्यापि इस कृति में सगुण भक्तिधारा के कवियों सूर, तुलसी आदि का कुछ स्थलों पर उल्लेख है और माध्व सम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय और वल्लभसम्प्रदाय की दार्षनिकता का संक्षिप्त विवेचन भी है, तथपि यह कृति मुख्यतः सूफियों और निर्गुण-भक्ति से जुड़े संत सम्प्रदायों के चिंतन और सामाजिक संस्कृति में उनके प्रदेय पर ही केन्द्रित है। कृति के समर्पण- ‘संतों और सूफियों को उनके सामन्वयिक संस्कृति के विकासार्थ प्रदत्त योगदान के लिए समर्पित’- से इस तथ्य की पुश्टि होती है। विभिन्न ऐतिहासिक साक्ष्यों के द्वारा प्रोफेसर इराकी इस निस्कर्श पर पहुंचे हैं कि संतों और सूफियों के साहित्य और सोच से समृद्ध भक्ति आंदोलन का उद्देष्य ब्राह्मणों के धार्मिक एकाधिकार को तोड़ कर निम्नवर्गीय लोगों को धार्मिक नेतृत्व के लिए आगे लाना था। यदि प्रोफेसर इराकी सगुणभक्ति काव्य के साक्ष्यों का सहयोग लेते तब भी उनकी मूल स्थापना में बहुत परिवर्तन नहीं होता। वस्तुतः संतों से इतर भी निम्न जातियों के लोग भक्ति आंदोलन की ‘जाति पाँति पूछे नहीं कोई। हरि को मजे सो हरिका होई’, से प्रेरित मूल मनोभाव को बढ़ाव दे रहे थे। “ौव ललेष्वरी का उल्लेख प्रोफेसर इराकी ने किया है, अश्टछाप के तीन कवि भी निम्नवर्गीय थे और रामभक्ति से जुड़े नाभादास के भी अस्पृष्य होने की बात कही जाती है। वस्तुतः प्रगतिषील विचारकों ने अपनी सुविधा के लिए निर्गुण और सगुण धाराओं को अलग और परस्पर विरोधी मान लिया है। वस्तुतः ये दोनों धाराएँ एक दूसरे से विवाद और संवाद करती हुई परस्पर जुड़ी हुई हैं। मुरुग्रंथ साहब में सूर और मीरा की उपस्थिति, तुलसी का कथन ‘अगुनहि सगुनहि नहिं कुछ भेदा’ और सूरदास का मंतव्य ‘अविगत आदि अनंत अनुपम अलेख पुरुश अविनाषी’ आदि इस संदर्भ में द्रश्टव्य है। प्रोफेसर इराकी भी दोनों धाराओं की वैचारिकता में कई स्थलों पर साम्य पाते हैं।

प्रोफेसर इराकी ने नए स्रोतों और साक्ष्यों को खँगालते हुए अपने विचारों और निस्कर्शों को प्रमाणपुश्ठ किया है। लेकिन सूचनाओं, प्रमाणों और दूसरे विद्वानों के अभिमतों के बीच उनका स्वयं का मंतव्य सुरक्षित है। उन्होंने साधिकार दूसरे विद्वानों के अभिमत से असहमति जताई है। मेकालिफ ने “ोख फरीद की गुरूग्रंथ साहिब में संकलित रचनाओं को किसी अन्य द्वारा रचित माना है। प्रोफेसर इराकी इन्हे “ोख फरीद कृत सिद्ध करते हैं। इसी तरह इतिहासकार ताराचंद्र और प्रोफेसर सरकार के इस मंतव्य से वे सहमत नहीं हो पाते हैं कि सतनामी रैदासी परम्परा में आते हैं। प्रोफेसर इराकी उन्हें कबीरपंथ से संबद्ध मानते हैं। सर्बंगी (रज्जबदास) का संपादन करके प्रोफेसर इराकी ने सहित्य और इतिहास के अध्येताओं को अनेक प्रामाणिक तथ्यों से अवगत कराया था, प्रस्तुत कृति भी इतिहास में गहरे पैठने की गवाह है। कबीर पंथ, सिख पंथ, दादू सम्प्रदाय, सतनामी सम्प्रदाय ओर सूफियों के विशय में इस कृति में प्रभूत नयी और प्रामाणिक जानकारियाँ हैं, इनसे प्रोफेसर इराकी का गह्न अध्ययन और वस्तुनिश्ठ विवेचन का गुण सामने आता है।

यह कृति भारतीय इतिहास और हिन्दी साहित्य के पुनर्पाठ में न केवल सहायक है, अपितु प्रासंगिक भी है।

सदर्भ-मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन, प्रोफेसर “ाहाबुद्दीन इरकी, प्र॰ चैखम्भा सुरभारती प्रकाषन, के 37@117 गोपल मंदिर लेन, वाराणसी.221001 प्रथम सं॰ 2012

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News source: U.P.Samachar Sewa

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