पिछले कुछ समय से कांग्रेस में संकट लगातार गहराता जा रहा है। यों तो उतार-चढ़ाव हर राजनीतिक दल में आते रहते हैं। दल बनते और बिगड़ते भी रहते हैं; लेकिन कांग्रेस का यह संकट उसके समर्थकों ही नहीं, उन विरोधियों के लिए भी चिंता का कारण बन गया है, जो देश से वास्तव में प्रेम करते हैं। भारत में दो तरह के राजनीतिक दल हैं। एक वे हैं जिनका स्वरूप राष्ट्रीय है। अर्थात हर राज्य में उनकी उपस्थिति किसी न किसी रूप में है। दूसरे क्षेत्रीय दल हैं, जो एक राज्य या क्षेत्र विशेष में सीमित हैं। ऐसे दल प्रायः जाति और परिवार पर आधारित रहते हैं। मुखिया के बाद वह दल भी टूट जाता है। ऐसे में जो कोई उस परिवार में प्रभावी हो जाए, वह दल उसकी सम्पत्ति बन जाता है। जैसे आंध्र प्रदेश में एन.टी.रामाराव की पत्नी और बेटों की बजाय उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू प्रभावी हो गये। इसलिए आज तेलुगूदेशम पार्टी पर उन्हीं का कब्जा है। देशव्यापी दल के नाते किसी समय केवल कांग्रेस का ही अस्तित्व था। चूंकि आजादी का आंदोलन उसके बैनर पर ही चला, इसलिए उसके समर्थक पूरे देश में मौजूद थे। यद्यपि उस समय कांग्रेस एक मंच जैसी इकाई थी, जिस पर आकर अलग-अलग विचार वाले लोग भी आजादी के लिए मिलकर लड़ते थे। इसलिए 1947 में गांधी जी ने कांग्रेस को भंग करने को कहा था, जिससे उसमें शामिल लोग अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार राजनीतिक दल बनाकर चुनाव लड़ें। फिर जनता जिसे पसंद करे, वह शासन करे। पर नेहरू जैसा सत्तालोभी व्यक्ति इसे क्यों मानता ? जिसने प्रधानमंत्री बनने के लालच में देश बंटवा दिया, उससे ऐसी आशा भी नहीं थी। इसलिए उन्होंने गांधी जी का विचार कूड़े में डाल दिया। देश का दुर्भाग्य कहें या नेहरू का सौभाग्य, कुछ दिन बाद गांधी जी की हत्या हो गयी। इसका लाभ उठाकर नेहरू ने कांग्रेस को घरेलू सम्पत्ति बना दिया; पर इससे देश का बड़ा अहित हुआ। क्योंकि इसके बाद लोकतंत्र का राग गाने के बावजूद प्रायः सभी दल घरेलू जागीर बनते चले गये। उन्होंने विचारधारा को एक तरफ कर दिया और जैसे भी हो, जिसके भी साथ हो, मिलकर सत्ता पाना अपना एकमात्र लक्ष्य बना लिया। इसीलिए कुछ लोगों ने राजनीति को वारांगना अर्थात वेश्या तक का दर्जा दे डाला। नेहरू ने अपने सामने ही अपनी बेटी इंदिरा गांधी को पार्टी सौंप दी। इससे कांग्रेस के वे पुराने लोग नाराज हो गये, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लिया था और जो कुछ आदर्शों के लिए राजनीति में आये थे। ऐसे लोग क्रमशः कांग्रेस से छिटकने लगे। 1966 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर इसकी गति तेज हो गयी। कई राज्यों में नेताओं ने अपने क्षेत्रीय दल बना लिये। 1967 में डा. राममनोहर लोहिया के प्रयास से नौ राज्यों में अन्य दलों की सरकारें बनीं। इसमें क्षेत्रीय दलों की बहुत बड़ी भूमिका थी। क्षेत्रीय दलों की बढ़त देखकर पुराने कांग्रेसी इंदिरा गांधी के वर्चस्व को चुनौती देने लगे। इस पर 1969 में इंदिरा गांधी ने पार्टी तोड़कर नयी कांग्रेस (कांग्रेस आई) बना ली। इसके बाद नेहरू की गलत परम्परा को आगे बढ़ाते हुए वे अपने बेटों, संजय और फिर राजीव को राजनीति में ले आयीं। इसके दुष्परिणाम होने ही थे। संजय और उसकी चांडाल चौकड़ी ने आपातकाल में खूब अत्याचार किये। इंदिरा गांधी द्वारा पंजाब में किये गये गलत निर्णयों से उनकी हत्या हुई। इस हत्या को भुनाकर राजीव ने संसद में तीन चौथाई बहुमत पाया; पर राजनीति उनके स्वभाव में नहीं थी। राजीव गांधी ने भी श्रीलंका के बारे में कई गलत निर्णय किये। उसका दुष्परिणाम उन्हें भोगना पड़ा और उनकी भी हत्या हो गयी। इसके बाद कुछ समय तक कांग्रेस की राजनीति इंदिरा परिवार से हटकर चली। ये दल में आंतरिक लोकतंत्र बहाली का अच्छा मौका था; पर कांग्रेस के डी.एन.ए. में परिवारवाद घुसा है। इसलिए अटल जी की सरकार बनने पर फिर कांग्रेसियों को इसका कीड़ा काटने लगा। वे सोनिया गांधी की स्तुति करने लगे और उन्हें राजनीति में खींच लाए। जनता ने 2004 में फिर कांग्रेस और उनके साथियों को सत्ता सौंप दी। विदेशी मूल के कारण सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बन सकीं। अतः उन्होंने अपने भक्त मनमोहन सिंह को कुर्सी दे दी। इस प्रकार कांग्रेस ‘सोनिया कांग्रेस’ बन गयी। लेकिन 2014 में नरेन्द्र मोदी एक नयी चुनौती बन कर आये और उन्होंने ‘सोनिया कांग्रेस’ को लोकसभा में 44 सीटों पर समेट दिया। तबसे वहां सन्नाटा छाया है। वर्तमान वातावरण से लगता है कि ‘सोनिया कांग्रेस’ का इस संकट से उबरना असंभव है। चूंकि राज्यों में भी वह लगातार पिट रही है और कई नेता पार्टी छोड़ रहे हैं। देशव्यापी दलों में कांग्रेस के विकल्प के रूप में भा.ज.पा. तेजी से उभरी है। वह उन सब राज्यों में भी पहुंच गयी है, जहां दस साल पहले तक उसे कोई पूछता नहीं था। असम में तो उसने सरकार ही बना ली; पर बंगाल, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी उसका वोट प्रतिशत बढ़ा है। आज स्थिति यह है कि कांग्रेस की जमीन पर कहीं भा.ज.पा. बढ़ रही है, तो कहीं क्षेत्रीय दल। अतः उसका राष्ट्रीय स्वरूप समाप्ति पर है। किसी समय कम्युनिस्ट पार्टी के भी कई राज्यों में विधायक और सांसद बनते थे; पर चीन और रूस की चमचागीरी तथा हिन्दुओं का विरोध करने की बीमारी के चलते वे लगातार सिकुड़ रहे हैं। यदि ऐसा ही रहा, तो कुछ सालों में भारत में देशव्यापी दल के नाम पर केवल भा.ज.पा. ही रह जाएगी। जहां तक क्षेत्रीय दलों की बात है, लोकतंत्र में उनका भी स्थान है; पर उनकी कुछ मजबूरियां भी हैं। जैसे शिवसेना का आधार मुस्लिम विरोध, उत्तर प्रदेश और बिहार का विरोध तथा मराठीभाषियों का अंध समर्थन है। शिवसेना को कभी उत्तर या दक्षिण भारत में चुनाव नहीं लड़ना। इसलिए इनके विरुद्ध भावनाएं भड़काकर वह चुनाव जीतती है। यदि उसे पूरे देश में चुनाव लड़ना हो, तो वह ऐसा नहीं कर सकती। ऐसे ही अकालियों को हरियाणा का विरोध करने में कोई परेशानी नहीं है। क्योंकि उन्हें केवल पंजाब में ही चुनाव लड़ना है। लालू और नीतीश को बिहार से बाहर नहीं जाना और मुलायम या मायावती को उ.प्र. से। इसलिए वे भाषा, पानी, सीमा या जाति आदि के नाम पर भावनाएं भड़काकर चुनाव में उतरते हैं। इससे वे भले ही जीत जाएं, पर विघटन पैदा होने से देश हार जाता है। इसलिए देश में दो या तीन ऐसे दलों का होना बहुत जरूरी है, जिनका आधार पूरे देश में हो और जो लोकसभा की अधिकांश सीटों पर चुनाव लड़ें। क्षेत्रीय दल इस कमी को पूरा नहीं कर सकते। चूंकि उनके पास कोई राजनीतिक विचार नहीं है। उनका उद्देश्य है सत्ता पाना। इसलिए जो दल पहले कांग्रेस के विरोध में एकत्र हो जाते थे, वे अब भा.ज.पा. विरोध में एकजुट हो रहे हैं। 2019 में क्षेत्रीय दल मिलकर भा.ज.पा. के विरुद्ध चुनाव लडेंगे, इसकी कोई संभावना नहीं है। यदि वे लड़े भी, तो जीतेंगे नहीं; और यदि जीत भी गये, तो अगले ही दिन से उनमें संग्राम शुरू हो जाएगा। ऐसे में कांग्रेस का जीवित और इतना सबल रहना जरूरी है कि वह संसद में संतुलन बनाकर रख सके। इससे यदि कल भा.ज.पा. वाले भी निरंकुश हो जाएं, तो उन पर नियन्त्रण बना रहेगा। इसलिए कांग्रेस में जो लोग विचारवान हैं। जिनका अपने-अपने राज्यों में कुछ जमीनी आधार है। भले ही वे आज कांग्रेस में हों, या उन्होंने सोनिया के पुत्रमोह और राहुल की निष्क्रियता के कारण पार्टी छोड़ दी हो, उन सबको मिलकर एक ‘नयी कांग्रेस’ बनानी चाहिए। इसके बाद वे 2019 में लोकसभा की सभी सीटों पर लड़ें। ऐसी पार्टी सत्ता में हो या विपक्ष में, पर वह पूरे देश की सच्ची प्रतिनिधि होगी। लेकिन इसके लिए सबसे पहली बात यह है कि कांग्रेसी इस ‘सोनिया परिवार’ से पिंड छुड़ाएं। 1969 में इंदिरा गांधी ने ‘परिवार’ का वर्चस्व बनाये रखने के लिए नयी कांग्रेस बनायी थी। अब ‘परिवार’ के वर्चस्व से मुक्त होने के लिए नयी कांग्रेस की जरूरत है। जैसे नदी के घाट पर लगे खूंटों से नावें बंधी रहती हैं। काम पर जाते समय नाविक उन खूंटों से नाव छुड़ा लेते हैं। ‘सोनिया परिवार’ भी एक खूंटा है। इससे मुक्त हुए बिना कांग्रेस आगे नहीं बढ़ सकती। अच्छा तो यह है कि देश और पार्टी के हित में यह परिवार खुद ही राजनीति छोड़ दे। वरना किसी दिन कोई तूफान नाव के साथ खूंटे को भी बहाकर सदा के लिए गहन समुद्र में डुबो देगा।
Vijai Kumar
Freelance writer
News source: U.P.Samachar Sewa
News & Article: Comments on this upsamacharsewa@gmail.com