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  Yदशरथ माँझी-प्रेम और पुरुषार्थ की प्रतिमूर्ति
 

दशरथ माँझी द्वारा निर्मित मार्ग हजारों-लाखों किसानों, विद्यार्थियों, बीमारों, व्यापारियों आदि के लिए बहुत उपयोगी है। क्या उपयोगिता सौंदर्य पर भारी नहीं है।
दशरथ माँझी का उक्त कार्य हमे कई तथ्यों से रूबरू कराता है। प्रथम, कर्म और पुरुषार्थ से कोई भी असम्भव कार्य सम्भव हो जाता है। आर्ष ग्रन्थों में लिखा है ‘‘कृत मे दक्षिणो हस्ते जयो मे सब्य आहितरू’’ अर्थात कर्म तुम्हारे दायें हाथ में है तो विजय बाएं हाथ में। द्वितीय, धैर्य अभीष्ट को पाने में साधक है। माँझी 22 वर्ष तक धैर्य के साथ परिश्रम करते रहे।

  डॉ. ओ. पी. मिश्र  Dr. OP Misra
Tags: Article, Dashrath Manjhi, Faguni Devi, Gaya Bihar
Publised on : 08 March 2014 , Time: 12:25 

अज्ञात, अनाथ और अनपढ़ व्यक्ति ने 20 वीं शताब्दी में अपनी दिवंगत पत्नी फागुनी देवी की स्मृति में जिस प्रेम, परिश्रम और पुरुषार्थ का परिचय दिया, उसका नाम है दशरथ माँझी। उनका जन्म बिहार के गया जिले के अतरी गाँव में 14 जनवरी 1929 को एक अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ था। मेहनत कर अपने परिवार को चलाते थे। उनमें असाधरणता के कोई चिन्ह भी दिखाई नहीं पड़ते थे किन्तु जीवन में घटित एक दुखरूद घटना ने उन्हें कुछ ऐसा कर गुजरने के लिए विवश किया कि आज वे अपने गाँव, प्रदेश और देश में ही नहीं अपितु विश्व में एक असाधरण पुरुष के रूप में याद किए जाते हैं। लगभग पाँच दशक पूर्व तब वे 22 वर्ष के युवक थे। अपनी गर्भवती पत्नी को 80 किलोमीटर दूर स्थित वजीरगंज अस्पताल ले जा रहे थे। गाँव और वजीरगंज के मध्य पहाड़ था। इसलिए वजीरगंज की दूरी भी अधिक थी और समय भी बहुत लगता था। पत्नी को ले जाते समय उसकी रास्ते में ही असामयिक मृत्यु हो गई। उन्हें महसूस हुआ कि यदि बीच में पहाड़ न होता तो वे वजीरगंज पहुँच कर यथा समय पत्नी का उपचार करा सकते थे और उसे मौत के मुँह में जाने से बचा लेते। उन्होंने प्रण किया कि वे पहाड़ को काटकर वजीरगंज जाने का रास्ता सुगम करके ही दम लेंगे। घर का कुछ सामान बेचकर छेनी और हथौड़ा खरीदा। अगले दिन से वे पहाड़ काट कर रास्ता बनाने में जुट गए। सवेरे से शाम तक पूरी तन्मयता से वे पहाड़ काटते। गाँव के लोग उन्हें पत्नी के वियोग में ऐसा करते हुए देखकर पागल समझने लगे। इतिहास साक्षी है कि ऐसे ही जुनूनी और पागलों ने ऐतिहासिक कार्य किए हैं। आजादी की लड़ाई के दिनों भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद विस्मिल, अशफाक उल्ला, रोशन सिंह आदि जो भारत माँ को गुलामी की जंजीरों से छुटकारा दिलाने के लिए अपना यौवन होम कर रहे थे, को भी पागल समझा जाता था। नफा नुकसान का लेखा जोखा रखने वाले वे लोग नहीं थे। क्या इन तथाकथित पागलों ने अंगरेजों को भारत से भागने के लिए विवश नहीं किया। दशरथ माँझी जब थोड़ा बहुत पहाड़ की छाती छीलने में सफल होते दिखाई पड़े तब कुछ अन्य लोगों ने भी सहयोग किया।
दशरथ माँझी ने पहाड़ काटने का असम्भव-सा दिखने वाला कार्य 1960 में शुरू किया था और यह 1982 अर्थात 22 वर्ष में पूरा हुआ। अब यह रास्ता 360 फिट लम्बा, 16 फिट चैड़ा और 25 फिट ऊँचे पहाड़ के बीच से निकलता है। उनके गाँव अतरी से वजीरगंज की दूरी 80 किलोमीटर से घटकर मात्रा पांच किलोमीटर रह गई है। गाँव से वजीरगंज की दूरी कम हो जाने के कारण प्रतिदिन अनेक मरीज वहाँ के अस्पताल पहुँच कर अपना उपचार कराते हैं और रोग मुक्त होते हैं। केवल रोगी ही नहीं अपितु अतरी गाँव तथा पास पड़ोस के गांवों के किसान, विद्यार्थी, छोटे-मोटे व्यापारी और मजदूर वजीरगंज जाकर क्रमशरू अपनी जिन्स बेचते हैं, पढ़ते हैं, व्यापार करते हैं और मजदूरी कमाते हैं। नया रास्ता न केवल माँझी के पत्नी के प्रति अगाध प्रेम का प्रतीक है बल्कि धर्म और पुण्य का उदाहरण भी है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है-

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयं।
परोपकाराय पुण्याय पापाय च पर पीड़नं॥

अर्थात 18 पुराणों और व्यास के दो वचनों (वेद और महाभारत) में कहा गया है कि परोपकार पुण्य है और अपकारध्परपीड़न पाप है। स्पष्ट है कि दशरथ माँझी भले ही धर्म का अर्थ न जानते हों किन्तु उन्होंने जो कर दिखाया, वह क्षेत्रीय जनता के प्रति उपकार है और इस प्रकार वे किसी धर्मात्मा से कम नहीं हैं।
दशरथ माँझी के अपनी पत्नी के प्रति प्रेम और उसकी स्मृति में पहाड़ की छाती को विदीर्ण कर रास्ते का निर्माण हमे मुगल बादशाह शाहजहाँ (1628-1666) का स्मरण कराता है। उसकी तीन पत्नियाँ थीं- अर्जुमंद बानू बेगम (लोकप्रिय नाम मुमताज महल), अकबराबादी महल और फतेहपुरी महल। अपनी 14 वीं संतान (दहर आरा) को जन्म देते समय 1631 में वह बुरहानपुर में अल्लाह को प्यारी हो गई। शासन कार्यों में उसकी कोई रुचि नहीं रहती थी। वह पति प्रेम में पगी रहती थी। शाहजहाँ ने उसकी याद में आगरा के यमुना तट पर संगमरमर का मकबरा बनवाया। यह 22 फिट ऊँचे आसन पर बना है और उसका आकार वर्गाकार है। मीनारों और गुम्बदों की बनावट देखते ही बनती है। ताजमहल देश और विदेश के पर्यटकों के लिए आकर्षण का विषय है। कहा जाता है कि एक विदेशी युग्म (पति-पत्नी) ने जब इसे देखा और इसके सौंदर्य पर मुग्ध हुआ था तब उसकी पत्नी ने कहा था ‘‘डालिंग, यदि ऐसा ही स्मारक मेरी याद में बनवा दो तो मैं अभी मरने के लिए तैयार हूँ।’’
शाहजहाँ और दशरथ माँझी तथा ताजमहल और पहाड़ के मध्य बनाये मार्ग की तुलना अप्रासंगिक नहीं होगी। शाहजहाँ ने जिस मकबरे (ताजमहल) का निर्माण कराया उसमें उसका कोई श्रम और धन नहीं लगाया गया था। सैकड़ो मजदूरों, कारीगरों और शिल्पियों ने उसे कई वर्षों में बनाया था। करोड़ों रुपये जो उस पर खर्च किए गए थे वह धन प्रजा का था। दशरथ माँझी ने 22 वर्ष तक अपना श्रम लगाकर रास्ता बनाया था। छेनी पर हथौड़े का प्रत्येक प्रहार उन्हें अपनी पत्नी की याद दिलाता था। कहा जा सकता है कि 22 वर्ष तक वह अपनी पत्नी के नाम की माला जपता रहा। उनके प्रेम के समक्ष शाहजहाँ का पत्नी के प्रति प्रेम कहीं नहीं ठहरता। ताजमहल में कला (वस्तु और चित्रा) से उत्पन्न सौंदर्य है। दशरथ माँझी द्वारा निर्मित मार्ग में उपयोगिता है। सौंदर्य तो केवल आँखों का विषय है। इससे दर्शकों और पर्यटकों को कोई उपयोगिता का लाभ नहीं मिलता। कई बार वह गरीब प्रेमियों के लिए खीझ का विषय बनता है। इस सम्बन्ध में शायर साहिर लुधियानवी ने ‘ताजमहल’ नामक नज्म में जो लिखा है, वह उल्लेखनीय है-
ये चमनजार, ये जमना का किनारा, ये महल,
ये मुनक्कश दरो-दीवार, ये मेहराब, ये ताक,
इक शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर,
हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मजाक।
मेरी महबूब कहीं और मिलाकर मुझसे॥

इसके बरअक्स दशरथ माँझी द्वारा निर्मित मार्ग हजारों-लाखों किसानों, विद्यार्थियों, बीमारों, व्यापारियों आदि के लिए बहुत उपयोगी है। क्या उपयोगिता सौंदर्य पर भारी नहीं है।
दशरथ माँझी का उक्त कार्य हमे कई तथ्यों से रूबरू कराता है। प्रथम, कर्म और पुरुषार्थ से कोई भी असम्भव कार्य सम्भव हो जाता है। आर्ष ग्रन्थों में लिखा है ‘‘कृत मे दक्षिणो हस्ते जयो मे सब्य आहितरू’’ अर्थात कर्म तुम्हारे दायें हाथ में है तो विजय बाएं हाथ में। द्वितीय, धैर्य अभीष्ट को पाने में साधक है। माँझी 22 वर्ष तक धैर्य के साथ परिश्रम करते रहे। तृतीय, सभी कार्यों के लिए सरकार से आशा करने के स्थान पर स्वयं वांछित कार्य में जुटकर उसे सम्पादित किया जा सकता है। दशरथ माँझी के कृतित्व के सम्बन्ध में कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की निम्नलिखित पंक्तियाँ बहुत सटीक हैं-
वसुधा का नेता कौन हुआ !
भूखण्ड विजेता कौन हुआ !
अतुलित यशक्रेता कौन हुआ !
युगधर्म प्रणेता कौन हुआ !
जिसने न कभी आराम किया !
विघ्नों में रहकर काम किया !

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News source: U.P.Samachar Sewa

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