U.P. Web News
|
|
|
|
|
|
|
|
|
     
   News  
 

   

अब है असली चुनौती
चहुं ओर बढत बना रही भाजपा के सामने असली चुनौती को रेखांकित कर रहे हैं चिंतक एवं लेखक विजय कुमार
विजय कुमार
Publised on : 21 May 2016,  Last updated Time 21:00 ,Tags: Vijay Kumar, U.P. BJP, Election, Uma Bharti

पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आ गये हैं। इनसे भाजपा का उत्साह बढ़ा है। कांग्रेस के फूटे डिब्बे में दो छेद और बढ़ गये हैं। केरल की जीत पर वामपंथी भले ही खुश होंय पर उनका बंगाली गढ़ ध्वस्त हो गया है। अब वहां उनकी वापसी कठिन है।

केरल में वाममार्गियों की जीत का कारण
भाजपा द्वारा प्राप्त 10.5 प्रतिशत वोट हैं। यदि भाजपा चुनाव को त्रिकोणीय न बनाती तो वहां भी वामपंथी हारते और कांग्रेस जीत जाती। यद्यपि वामपंथी उसके लिए अधिक खतरनाक हैं। उनके शासन में संघ और भाजपा वालों पर हमले बढ़ जाते हैं। फिर भी भाजपा ने इस बार पूरी ताकत से लड़कर अपनी सशक्त पहचान बनाने का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है।

पूरब का द्वार खुला

असम में भाजपा की जीत बहुत सुखदायी है। इससे उसके लिए पूरब का द्वार खुल गया है। बंगाल में भाजपा ने अपने बलबूते पर 10.2 प्रतिशत वोट पाकर तीन सीट जीती हैं। लेकिन वहां मंजिल अभी दूर है। उसे वहां कोई ऐसा जुझारू नेता सामने लाना होगा जो दस साल तक लगातार परिश्रम करे। तब जाकर सफलता की बात सोची जा सकती है।

तमिलनाडु और पुडुचेरी में
भाजपा को जो भी मिला वह ठीक ही है। क्योंकि वहां उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था। इन परिणामों से निःसंदेह दिल्ली और बिहार का दुख कुछ कम हुआ होगा पर भाजपा वालों के लिए असली लड़ाई तो अब सामने है जिसके परिणाम से 2019 के निर्णय प्रभावित होंगे। यदि भाजपा को उत्तर प्रदेश में होने वाले इस युद्ध को जीतना है तो उन्हें पहले ये सोचना होगा कि वे दिल्ली और बिहार में क्यों हारे? दोनों जगह भाजपा का संगठन नीचे तक विद्यमान है। फिर वे क्यों दिल्ली में तीन पर सिमट गये और बिहार में पिछली बार से काफी पीछे रह गये। इसका एक बड़ा कारण है मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी को घोषित न करना।

जब दिसम्बर 2013 में दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हुए थे, तब विजय गोयल
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष थे। उनका परिश्रम देखकर लोग उन्हें ही मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी मान रहे थे, लेकिन अचानक भाजपा के बड़े लोगों को इलहाम हुआ कि उनके नेतृत्व में चुनाव नहीं जीत सकते। अतः डा हर्षवर्धन को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बना दिया। इससे भाजपा को 32 सीट मिलीं पर पूर्ण बहुमत न होने से वे आगे नहीं बढ़े। 28 सीट वाले केजरीवाल ने कांग्रेस से मिलकर सरकार बनायी जो कुछ ही दिन बाद गिर गयी।

दिल्ली बिहार का सबक

इसके बाद लोकसभा चुनाव हुए। उनमें भाजपा ने दिल्ली की सातों सीटें जीत लीं। डा हर्षवर्धन सांसद और फिर मंत्री बन गये। फरवरी 2015 में फिर दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए। इस बार भी भाजपा ने किसी को मुख्यमंत्री घोषित नहीं किया। उन्हें लगा कि नरेन्द्र मोदी के नाम पर लोकसभा की तरह यहां भी जीत जाएंगे पर चुनाव से पूर्व ही दुर्गति के लक्षण नजर आने लगे। अतः अंतिम समय में किरण बेदी को सामने लाया गया लेकिन भाजपा तीन सीटों पर ही सिमट गयी।

कुछ लोग कहते हैं कि पहली बार कांग्रेस ने पूरा दम लगाया था पर दूसरी बार उसका मनोबल गिर गया।
भाजपा विरोधियों को लगा कि यदि मोदी को रोकना है तो केजरीवाल को जिताना होगा। अतः कांग्रेस के सारे वोट उसे चले गये। ये तर्क अपनी जगह ठीक होंगे पर यह नहीं भूलना चाहिए कि अन्ना आंदोलन के समय से ही केजरीवाल अपनी पार्टी का चेहरा बन गये थे जबकि भाजपा वाले अंत तक सेनापति ही तय नहीं कर सके। अर्थात भाजपा की हार का कारण रहा . बार.बार नेता बदलना तथा उसकी घोषणा भी समय से न करना।

किसी ने लिखा है .
मंजिल पे भला क्या पहुंचेंगे, हर गाम पे ठोकर खाएंगे
वो काफिले वाले जो अपने सरदार बदलते रहते हैं।।

अब बिहार चलें। वहां नीतीश कुमार मुख्यमंत्री तो थे ही, अपने गठबंधन के घोषित प्रत्याशी भी थे। लालू के साथ आने से जातीय गणित भी उनके पक्ष में हो गया। फिर उन्होंने प्रशांत किशोर जैसे चुनाव प्रबंधक की सेवाएं भी पर्याप्त समय पूर्व ले ली थीं। दूसरी ओर
भाजपा वाले उसी भ्रम में रहे जिससे वे दिल्ली में हारे थे। अतः उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए कोई प्रत्याशी घोषित नहीं किया।

सुशील मोदी और नंदकिशोर यादव बिहार में
भाजपा के दो प्रमुख चेहरे हैं। सुशील मोदी उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं। उनका नाम और कद बड़ा है। उनकी योग्यता और निष्ठा भी निर्विवाद है पर इस बार समीकरण ऐसा था कि यदि नंदकिशोर यादव मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी घोषित हो जाते तो लालू का वोट बैंक टूटता और परिणाम बदल जाते। पर सेनापति न बनाने की गलती यहां भी की गयी। यद्यपि हरियाणा में यह नीति ठीक रही। क्योंकि वहां भाजपा ने कभी अकेले चुनाव नहीं लड़ा। इसलिए वहां उनके पास कोई बड़ा नेता था ही नहीं पर दिल्ली और बिहार में ऐसा नहीं था।

उत्तर प्रदेश में सेनापति की जरूरत

इसी पृष्ठभूमि में उत्तर प्रदेश को देखें। चुनाव में अब केवल छह महीने बचे हैं पर भाजपा ने अभी तक सेनापति घोषित नहीं किया। केशव प्रसाद मौर्य पार्टी के नये राज्य अध्यक्ष बने हैं पर उनका कद मुलायम सिंह या मायावती से टक्कर लेने लायक नहीं है। उप्र् बड़ा राज्य है। अतः यहां किसी बड़े नेता को ही आगे लाना होगा।

इस दृष्टि से राजनाथ सिंह और उमा भारती के नाम सामने आते हैं। राजनाथ सिंह एक बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं पर यह भी सच है कि तब वे पिछले दरवाजे से आये थे। वे केन्द्र में कई बार मंत्री रहे हैं। अब भी वे सरकार में नंबर दो अर्थात गृहमंत्री हैं। राज्य और केन्द्र दोनों का अनुभव उनके पास है। वे बहुत संतुलित होकर बोलते हैं लेकिन किसी क्षेत्र या जाति में उनकी कोई खास अपील नहीं है। इसीलिए उन्हें लोकसभा हो या विधानसभा हर बार अपनी सीट बदलनी पड़ती है। फिर भी उनका नाम महत्वपूर्ण है।

दूसरा नाम उमा भारती को केन्द्र और राज्य में शासन का व्यापक अनुभव है। वे कुछ बड़बोली जरूर हैं पर पिछले कुछ वर्षों में वे काफी बदली हैं। उन्हें जनांदोलन का भी खूब अनुभव है। मध्य प्रदेश को दिग्विजय सिंह के जबड़े से छीनने का श्रेय उन्हें ही है। राम मंदिर आंदोलन से लेकर गंगा अभियान तक में उनकी सक्रिय भूमिका रही है। महिला और प्रखर वक्ता होने के नाते वे मायावती को करारी टक्कर देंगी। यदि जातीय पक्ष को देखें तो वे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की उस लोध बिरादरी से हैं जिससे पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह हैं। इस मामले में वे मुलायम सिंह से भी कम नहीं हैं।

भाजपा वालों को यह समझना होगा कि बिना सेनापति के युद्ध नहीं होता। असम की ताजा जीत में समय से घोषित किये गये सेनापति सर्वानंद सोनोवाल का भी बड़ी भूमिका है। उप्र में देरी के कारण भाजपा वाले आधी लड़ाई हार चुके हैं। आज की तारीख में वहां बसपा पहले और भाजपा दूसरे नंबर पर है। फिर भी यदि नेता तय हो जाए और उसे सब कामों से मुक्त कर लगातार घूमने दें तो बाजी पलट सकती है। चुनाव विश्लेषकों के अनुसार इस समय यूपी में किसी तथाकथित सवर्ण का मुख्यमंत्री बनना कठिन है। इसलिए भाजपा वालों को बहुत ध्यान से निर्णय करना होगा। असम में राम माधव तथा चुनाव प्रबंधक रजत सेठी की भूमिका भी अच्छी रही है। इन दोनों को तुरंत उप्र में लगा देना चाहिए।

कुछ लोग कहते हैं कि मोदी को खुद पर जरूरत से ज्यादा विश्वास है। वे सोचते हैं कि 2019 में उनके सामने प्रधानमंत्री पद के लिए केजरीवाल, नीतीश, राहुल, ममता,मुलायम आदि कई राज्य स्तर के नेता होंगे। इनकी आपसी लड़ाई में वे बाजी मार लेंगे। अंदर का सच तो मोदी या अमित शाह जानें पर इतना जरूर है कि जिस भवन पर झंडा लगता है वह भवन जमीन पर ही बनता है हवा में नहीं। बिहार की जमीन खोने के बाद अब असली लड़ाई उत्तर प्रदेश में है। इसलिए वहां किसी जमीनी नेता की सेनापति के नाते घोषणा तुरन्त होनी चाहिए।


Vijai Kumar, Vishva Hindu Parishad VHP
विजय कुमार, संकटमोचन आश्रम, रामकृष्णपुरम्, सेक्टर 6 नयी दिल्ली . 22

News source: U.P.Samachar Sewa

News & Article:  Comments on this upsamacharsewa@gmail.com  

 
 
 
                               
 
»
Home  
»
About Us  
»
Matermony  
»
Tour & Travels  
»
Contact Us  
 
»
News & Current Affairs  
»
Career  
»
Arts Gallery  
»
Books  
»
Feedback  
 
»
Sports  
»
Find Job  
»
Astrology  
»
Shopping  
»
News Letter  
© up-webnews | Best viewed in 1024*768 pixel resolution with IE 6.0 or above. | Disclaimer | Powered by : omni-NET