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अफगानिस्तान
में 15 अगस्त को तालिबान का कब्जा हो जाने से भारत की चिंताएं बढ़ गई हैं। यूं तो यह
अफगानिस्तान का आंतरिक मामला है। वहां किसकी सरकार रहे, लोकतांत्रिक सरकार बने या
कट्टरपंथी तालिबान शासन करें, इससे भारत पर प्रत्यक्ष कोई असर नहीं पड़ने वाला है ।
किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से काबुल में सत्ता हस्तांतरण से भारत अप्रत्यक्ष रुप से
अवश्य प्रभावित होगा। यह प्रभाव भारत के लिए चिंता की स्थिति तक हो सकता है। यह
जगजाहिर है कि अफगानिस्तान में तालिबान चीन और पाकिस्तान के खुले समर्थन और सहयोग
से काबिज हुए हैं। इसलिए कट्टरपंथियों के कब्जे का अफगानिस्तान भारत के लिए
परेशानियां बढ़ाने वाला हो सकता है। हामिद करजई या अशरफ गनी के नेतृत्व वाला जो
अफगानिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का प्रबल समर्थक था और खुले आम पाकिस्तान के
मामले में भारत के साथ खड़ा होता था। वह अब पाकिस्तान के औपनिवेशिक राज्य की तरह का
व्यवहार करेगा।
यह जगजाहिर है कि तालिबान का जन्मदाता पाकिस्तान है। पाकिस्तान के मदरसों से निकले
इस्लामी कट्टरपंथियों मुल्ला उमर और मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ने अमेरिका के इशारे
पर 90 के दशक में तालिबान नामक जिहादी संगठन की स्थापना की थी। तालिबान में अफगानों
के अलावा तमाम पाकिस्तानी भी शामिल हैं। पाकिस्तान अपने हितों को सुरक्षित रखने और
पडोसियों को परेशान करने के लिए ही आईएसआई की मदद से ऐसे आपरेशन करता रहा है, जिनसे
भारत को समस्याएं हों। जब तक अफगानिस्तान में हामिद करजई या अफरफ गनी की सरकार रही
पाकिस्तान की अफगानिस्तान में एक नहीं चली। दोनों ही नेता भारत और भारत की नीतियों
के प्रबल समर्थक थे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के तालिबानी शासन की
प्रशंसा करने और अफगान जनता को मानसिक गुलामी की जंजीरों से मुक्त होने पर
शुभकामनाएं देने से पडोसी देश की मानसिकता भी स्पष्ट उजागर हो गई है। इसके साथ ही
यह संकेत मिल गए हैं कि तालिबानी शासन किस दिशा में चलेगा और किसकी शह पर चलेगा।
भारत के पूर्व सैन्य अधिकारी, रणनीतिकार और बुद्धिजीवी अफगान संकट को भारत की चिंता
बढ़ाने वाला बता चुके हैं। पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक और राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय
महासचिव रहे राम माधव ने ट्वीट करके 16 अगस्त को ही तालिबान शासन को देश को चिंतित
करने वाला घटनाक्रम बताया है। उन्होंने ट्वीट किया कि तीस हजार प्रशिक्षित
हथियारबंद तालिबान को अब वहां की सत्ता दूसरी जगहो पर लड़ने के लिए भेज सकती है।
लेकिन, भारत के लिए यह तत्कालिक चिंता का विषय है। अफगान सेना की पराजय पर चिंता
व्यक्त करते हुए पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने लिखा है कि अमेरिका और अन्य
देशों से प्रशिक्षित और आधुनिक हथियारों से लैस सेना कैसे बगैर लड़े ही पराजित हो गई।
यह जांच का विषय है।
भारत की चिंताओं को चार स्तर पर देखा जा सकता है। पहला यह कि हमारे देश में
कट्टरपंथी मुसलमानों का एक समूह ऐसा भी है, जोकि तालिबान की जीत को इस्लाम की जीत
के रूप मे देख रहा है। मान रहा है कि सरिया कानून लागू होना इस्लाम की शिक्षा और
नियमों पर चलना है। जिस स्तर पर इस घटनाक्रम की भारत के इस्लामी जगत में निंदा होनी
चाहिए थी, वह नहीं हुई है। इससे ऐसे तत्वों का मनोबल बढ़ सकता है जोकि कट्टरवादी
विचारधारा के समर्थक हैं। हालांकि मुसलमानों का बड़ा वर्ग इस बात के लिए तो खुदा का
शुक्रगुजार है कि वह भारत में हैं और भारत में जन्मे हैं, उनके पूवजों ने भारत में
रहने का फैसला किया है। लेकिन, तालिबान की हरकतों और खूनखराबे का विरोध करने से बच
रहे हैं। दूसरी बड़ी चिंता है अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सेनाओं का नया बनने वाला
गठजोड़। यह गठजोड़ चीन की मदद से भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की कोशिश
करेगा। इसकी कोशिश होगी कि किसी भी तरह से कश्मीर में भारत के सामने चुनौती खड़ी की
जाए। इसके लिए पाकिस्तान तालिबान लड़ाकों का सहारा लेकर घुसपैठ बढ़ाने और आतंकी हमलो
को अंजाम देने की भी कोशिश कर सकता है। भारत की चिंता का तीसरा कारण अफगानिस्तान
में किये गए निवेश और विकास पर खर्च हुए करीब एक लाख करोड़ रुपये के डूब जाना भी है।
इसके साथ ही भारत की ओर से अफगानिस्तान में विनिर्माण के क्षेत्र में करीब 24 हजार
करोड़ रुपये की परियोजनाएं संचालित हैं। ये सभी परियोजनाएं या तो बंद हो जाएंगी अथवा
इनके तालिबानियों के कब्जे में चले जाने का खतरा है। इस तरह भारत की करीब तीन दशक
की दीर्घकालिक योजना पूरी तरह से विफल होने की आशंका खड़ी हो गई है। भारत अपने
रणनीतिक और सामरिक महत्व को सुरक्षित करने के लिए हर हाल में अफगानिस्तान को अपने
साथ रखना चाहता था। इसके लिए भारत सरकार ने वहां विकास में सहयोग करने का फैसला किया।
अफगानिस्तान में बांध, सड़कें, पुल, अस्पताल, स्कूल बनाने का बड़े स्तर पर काम किया
गया । यह सब भारत ने अपने पैसे से किया। अफगानिस्तान का सलमा बांध सबसे चर्चित बांधों
में से एक है। इसे एक हफ्ते पहले ही तालिबान ने कब्जा लिया था। महत्वपूर्ण यह भी है
कि अफगानिस्तान नीति भारत की स्वतंत्रता के बाद से ही सतत रही है। इसमें केन्द्र की
सरकारों के बदलने पर भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ। कांग्रेस के जवाहर लाल नेहुरू और
इन्दिरा गांधी के राज में जो नीति बनी वही आज नीति राजग के अटल बिहारी वाजपेयी और
नरेन्द्र मोदी के राज में भी कायम है।
भारत के लिए चौथी चिंता यह है कि अफगानिस्तान में रह रहे हिन्दू और सिखों को कैसे
सुरक्षा दी जाएगी। अफगानिस्तान का नाम बदल कर :इस्लामिक अमीरात आफ अफगानिस्तान” कर
दिया गया है। सरिया कानून लागू कर दिये गए हैं। ऐसे में सदियों पुराने निवासी या कहें
हिन्दूकुश के समय के आदि निवासी हिन्दू और सिख कैसे रह पाएंगे ? उनके पूजा स्थलों -
मंदिरों और गुरुद्वारों की सुरक्षा कैसे होगी ? यह भी चिंतित करने वाला विषय है।
तालिबान के 1996 से 2001 के शासन के बीच हम देख चुके हैं कि किस तरह से उन्होंने
प्राचीन धरोहरों और धार्मिक प्रतीकों को नष्ट किया थ । बामियान में बुद्ध की दो
हजार साल पुरानी प्रतिमाओं को नष्ट कर दिया था। यह वही तालिबान है जो 1996 में सत्ता
में आया था। तालिबान की मदद से ही भारत का विमान अपहृत हुआ था। जिसे कंधार हवाई
अड्डे पर ले जाया गया था। क्योंकि तब वहां तालिबान का ही शासन था। जम्मू-कश्मीर के
एक पुलिस अधिकारी ने तो यहां तक आशंका व्यक्त कर दी है कि अब फिर से 9/11 से हमले
हो सकते हैं। इन सब चिंताओं के बीच यह सुखद समाचार है कि भारत का वि देश मंत्रालय
सक्रियता दिखा रहा है। ( उप्रससे )
लेखक
परिचयः सर्वेश कुमार सिंह
स्वतंत्र पत्रकार
3/11, आफीसर्स कालोनी कैसरबाग, लखनऊ-226001
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