अयोध्या
में विवादित ढांचे के नीचे रखीं भगवान श्रीराम की मूर्तियों को कोई ताकत हटा नहीं
सकती है, तो फिर वहां मस्जिद के ढांचे की क्या आवश्यकता है ? हम इस ढांचे को यहां
से हटा देना चाहते हैं। दृढ़ता और संकल्प की शक्ति के साथ यह बात कहने का अदम्य साहस
कल्याण सिंह में ही था। वह भी तब जब वे उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य के
मुख्यमंत्री पद पर विराजमान थे। कल्याण सिंह ने यह बात राजधानी के वरिष्ठ पत्रकार
स्व. दिलीप अवस्थी से सितंबर 1991 में कही थी। जो समय देश की जानी मानी पत्रिका के
राज्य में विशेष संवाददाता थे। उनके यह संकल्प व्यक्त करने के एक साल बाद ही छह
दिसम्बर 1992 को वह विवादित ढांचा वहां से हटा दिया गया था। इसका मतलब साफ है कि
कल्याण सिंह ने गर्भगृह पर ही श्रीराम मन्दिर निर्माण के लिए परिकल्पना कर ली थी।
सफल राजनेता, सफल मुख्यमंत्री, सफल विधायक, सफल पार्टी कार्यकर्ता, सफल शिक्षक और
सफल स्वयंसेवक के रूप में 89 साल की जीवन यात्रा पूरी करने के बाद 21 अगस्त 2021 को
अनन्त यात्रा पर जाने वाले कल्याण सिंह को युग पुरुष के रूप में याद किया जाएगा।
व्यक्तित्व में जन्मजात दृढ़ता
कल्याण सिंह जिस व्यक्तित्व का नाम है, उसने कभी पीछे मुडकर नहीं देखा। जो तय कर
लिया, उसे निभाया और अंत तक निभाया कभी नफा - नुकसान नहीं सोचा। उनके व्यक्तित्व
में एक जन्मजात दृढ़ता थी। जिसने उन्हें सफल प्रशासक तो बनाया ही, सफल राजनीतिज्ञ भी
साबित किया। अपनी दृढ़ता और सिद्धान्तों पर अडिगता के चलते ही वे भारतीय जनता पार्टी
के केन्द्रीय नेतृत्व से टकरा गए थे। झुके नहीं,पार्टी छोड़ी, बगावत की। लेकिन, हमेशा
अपनी आत्मा को भाजपा के भीतर ही पाया। इसी का परिणाम था कि दो बार 1999 और 2009 में
पार्टी से अलग होने के बाद पुनः पुनः लौटते रहे। और अंत में 2014 में जब लौटे तो
फिर कभी भाजपा से दूर नहीं हुए। पार्टी से दूर होने पर भी उन्होंने हमेशा यही इच्छा
व्यक्त की कि इस पार्टी में प्राण बसते हैं, मेरी अंतिम इच्छा है कि भाजपा के झण्डे
में लिपटकर ही अंतिम यात्रा पूरी हो।
प्रारम्भिक जीवनः संघ प्रवेश
कल्याण सिंह का प्रारम्भिक जीवन बेहद सामान्य परिवार से प्रारम्भ हुआ। उनका जन्म
अलीगढ़ जनपद के अतरौली क्षेत्र में मढौली गांव में पांच जनवरी 1932 को हुआ था। पिता
का नाम तेजपाल लोधी और माता का नाम सीता देवी था। वे किसान परिवार में जन्मे थे।
उनके पिता छोटे काश्तकार थे। शिक्षा के दौरान ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए
थे। उन्हें उत्तर प्रदेश के पूर्व क्षेत्र प्रचारक स्व. ओमप्रकाश जी ने स्वयंसेवक
बनाया था। ओमप्रकाश जी उस समय अतरौली तहसील में तहसील प्रचारक थे। बाद में उन्हें
अतरौली का तहसील कार्यवाह बनाया गया था। वे अंत तक ओमप्रकाश जी को अपना आदर्श मानते
रहे। भाजपा से दूरी होने के बाद भी वे ओमप्रकाश जी के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव
रखते थे। कल्याण सिंह ने अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत एक शिक्षक के रूप में की
थी। वे अतरौली के समीप ही स्थित रायपुर में एक जूनियर हाई स्कूल में अध्यापक रहे।
राजनैतिक यात्राः विधायक से मुख्यमंत्री और राज्यपाल तक
संघ की योजना से उन्हें तत्कालीन जनसंघ में काम के लिए भेजा गया । उन्होंने पहला
चुनाव जनसंघ के टिकट पर 1962 में लड़ा, लेकिन वह यह चुनाव हार गए। इसके बाद वह 1967
में फिर अतरौली से जनसंघ के ही टिकट पर चुनाव लड़े । इस बार वह जीत गए। इसके बाद
उन्होंने 1969,1974,1977 के चुनाव जीते। लेकिन, वे 1980 का विधान सभा हार गए। उन्हें
लोकदल प्रत्याशी अनवार अहमद ने हराया। फिर 1985, 1989,1991,1993 और 1996 में चुनाव
जीते। इस प्रकार कल्याण सिंह कुल नौ बार विधायक रहे। दो बार विधान सभा का चुनाव हारे।
जबकि दो बार सांसद रहे। एक बार 2004 में बुलन्दशहर से और 2009 में एटा से उन्होंने
चुनाव जीता। दोनों चुनाव उन्होंने निर्दलीय किन्तु सपा के समर्थन से जीते थे।
भारतीय जनता पार्टी से नाराज चल रहे कल्याण सिंह को 2014 में पुनः पार्टी मे वापस
लिया गया और उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया। इसके साथ ही वे कुछ महीनों के
लिए हिमाचल प्रदेश के भी राज्यपाल रहे।
भाजपा से बगावत और केन्द्रीय नेतृत्व से टकराव
कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश में 1999 में हुए सत्ता परिवर्तन से रुष्ट होकर भाजपा
छोड़ दी थी। उन्हें हटाकर रामप्रकाश गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाया गया था। किन्तु वह
नाराज हो गए और उन्होंने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बना ली थी। इस पार्टी से उन्होंने
2002 के विधान सभा चुनाव में अपने प्रत्याशी खड़े कर दिये। इसका परिणाम हुआ कि भाजपा
को इस चुनाव में भारी नुकसान हुआ। माना गया कि कल्याण सिंह के लोध और पिछड़े वोट
बैंक के कारण भाजपा लगभग 70 सीटों पर चुनाव हारी। यहीं से भाजपा को कल्याण सिंह की
राजनीतिक शक्ति का एहसास हुआ। इसके बाद ही उन्हें वापस लाने के प्रयास होने लगे थे।
वे 2004 में वापस लौट भी आए, किन्तु फिर बात बिगड़ गई और 2009 में दोबारा बगावत कर
दी। लेकिन, पांच साल में ही फिर वापस लौटे।
मन्दिर आंदोलन ने बनाया हिन्दू हृदय सम्राट
श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर आंदोलन के अग्रणी नेता के रूप में कल्याण सिंह को इतिहास
याद रखेगा। उन्हें युगपुरुष और हिन्दू हृदय सम्राट की उपाधि मन्दिर के लिए सरकार को
न्यौछावर कर देने के बाद ही मिली। ढांचा ढहाये जाने पर उन्होंने निहत्थे कारसेवकों
पर गोली चलवाने से इनकार कर दिया था। अफसरों को भी कह दिया था कि एक भी गोली नहीं
चलनी चाहिए। छह दिसंबर 1992 को अयोध्या मे विवादित ढांचा ढहाये जाने के बाद उन्होंने
अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। उन्होंने अपने मुख्य सचिव को बुलाकर इस्तीफा देने
से पहले कहा था कि सारी जिम्मेदारी मेरी है, जहां चाहो हस्ताक्षर करा लो ताकि बाद
में किसी अधिकारी पर कोई आंच न आये। विवादित ढांचा ढहाये जाने के मुकदमे में कल्याण
सिंह अकेले ऐसे नेता हैं जिन्हें एक दिन की सजा हुई थी।
पार्टी के पिछड़ा वर्ग के सशक्त नेता
भारतीय जनता पार्टी और उसकी पूर्ववर्ती पार्टी जनसंघ को सवर्णों की पार्टी माना जाता
था। लेकिन, 1980 के दशक के बाद कल्याण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में भाजपा
से यह पचहान हटी। भाजपा में पिछड़ों का प्रतिनिधित्व बढा और कल्याण सिंह स्वयं पिछड़े
वर्ग के सशक्त नेता के रूप में उभरे। मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जब
पिछड़ों की राजनीति का उभार हो रहा था। उस समय देश के प्रमुख पिछड़े नेताओं के मुकाबले
कल्याण सिंह का कद हमेशा ऊंचा रहा । उन्होंने भाजपा में पिछड़ों को उनका अधिकार
दिलाने के लिए भी नेतृत्व के सामने स्पष्ट रूप से मांगें रखीं और उन्हें पूरा कराया।
वे जिस जाति लोध राजपूत से आते थे, उसका मध्य उत्तर प्रदेश और पश्चिम में प्रभाव
है। तीन दर्जन से अधिक सीटों पर यह जाति निर्णायक मानी जाती है। कल्याण सिंह के
नेतृत्व के कारण ही यह जाति भाजपा से जुड़ी हुई है। पिछड़ों के मुद्दे उठाने में भी
वे कभी पीछे नहीं रहे। जहां अन्य पिछडे नेताओं की पहचान मात्र उनकी अपनी जाति तक
सीमित रही, वहीं कल्याण सिंह ने सभी पिछड़ों का दिल जीता था।
कठोर प्रशासकः अनुशासनप्रिय
कल्याण सिंह कठोर प्रशासक साबित हुए। पहली बार उन्हें जनता पार्टी के समय रामनरेश
यादव की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहने का अवसर मिला था। स्वास्थ्य मंत्री के रूप
में ही उन्होंने कठोर प्रशासक की पहचान बना ली थी। चिकित्सकों के तबादलों में
उन्होंने कोई सिफारिश नहीं मानी थी। दशकों से एक ही जगह जमें अनेक चिकित्सकों के
तबादले करके उन्होंने कठोर प्रशासन और सुशासन का संदेश दिया। मुख्यमंत्री बनने के
बाद उन्होंने प्रदेश में अपराधियों के खिलाफ अभियान चलाया था। अनेक नामी अपराधी
उत्तर प्रदेश छोड़कर चले गए थे। कानून व्यवस्था में सुधार हुआ था। परीक्षाओं में नकल
रोकने का कानून उनके समय ही बनाया गया था।
नहीं मानी थी नेतृत्व की सलाह
कल्याण सिंह ने अपने जीवन में कभी झुककर समझौता नहीं किया। यही कारण था कि जब 1999
में वह निर्णायक मोड़ आया कि उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ने को कहा गया था। उसी समय
भारतीय जनता पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने उन्हें दिल्ली आने को कहा था। उन्हें
केन्द्र सरकार में जगह देने का प्रस्ताव किया गया था। माना जाता है कि उन्हें सीधे
केन्द्रीय गृहमंत्री बनाने का प्रस्ताव था। लेकिन, उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं
किया और पार्टी छोड़ दी। यदि कल्याण सिंह ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया होता तो वे
देश में भाजपा चेहरे के रूप में उभरते और केन्द्रीय नेतृत्व करते। लेकिन, उन्होंने
मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने को अपना अपमान माना था और कोई भी पद लेने से इनकार कर
दिया था। हालांकि भाजपा ने सभी कटुताओं को भुलाकर कल्याण सिंह को अंतिम वर्षों में
यथोचित सम्मान दिया और उनके परिवार के सदस्यों को राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने का
काम किया है। उनके बेटे को लोकसभा का प्रत्याशी बनाया गया जबकि उनके पोते को विधायक
बनाया और योगी आदित्यनाथ के मंत्रिमण्डल में सबसे कम उम्र के मंत्री के रूप में जगह
प्रदान करके परिवार का सम्मान बरकरार रखा है। सम्पूर्ण जीवन राजनीति और सिद्धान्तों
को समर्पित करने वाले कल्याण सिंह को शत्-शत् नमन।
( उप्रससे )
लेखक
परिचयः सर्वेश कुमार सिंह
Sarvesh Kumar Singh
स्वतंत्र पत्रकार
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