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भारत को त्यौहारों का देश माना जाता है।दशहरे के बाद दीपावली की शुरुवात हो जाती है | दीपावली सबसे अधिक प्रमुख त्यौहार है। यह त्यौहार दीपों का पर्व है। जब हम अज्ञान रूपी अंधकार को हटाकर ज्ञान रूपी प्रकाश प्रज्ज्वलित
करते हैं तो हमें एक असीम और आलौकिक आनन्द का अनुभव होता है।हालाँकि दीपावली एक लौकिक पर्व है। फिर भी यह केवल बाहरी अंधकार को ही नहीं, बल्कि भीतरी अंधकार को मिटाने का पर्व भी बने। हम भीतर में धर्म का दीप जलाकर मोह और मूचर्छा के अंधकार को दूर कर सकते हैं। दीपावली के मौके पर सभी आमतौर से अपने घरों की साफ-सफाई, साज-सज्जा और उसे
संवारने-निखारने का प्रयास करते हैं। उसी प्रकार अगर भीतर चेतना के आँगन पर जमे कर्म के कचरे को बुहारकर- मांज कर साफ किया जाए, उसे संयम से सजाने-संवारने का प्रयास किया जाए और उसमें आत्मा रूपी दीपक की अखंड ज्योति को प्रज्वलित कर दिया जाए तो मनुष्य शाश्वत सुख, शांति एवं आनंद को प्राप्त हो सकता है। आतंकवाद, भय, हिंसा, प्रदूषण, अनैतिकता,
ओजोन का नष्ट होना आदि समस्याएँ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य के सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आखिर इन समस्याओं का जनक भी मनुष्य ही तो है। क्योंकि किसी पशु अथवा जानवर के लिए ऐसा करना संभव नहीं है। अनावश्यक हिंसा का जघन्य कृत्य भी मनुष्य के सिवाय दूसरा कौन कर सकता है? आतंकवाद की समस्या का हल तब तक नहीं हो सकता जब तक मनुष्य अनावश्यक हिंसा को
छोड़ने का प्रण नहीं करता, इसलिये दीपावली को अहिंसा की ज्योति का पर्व बनाना होगा।
हमारे भीतर अज्ञान का तमस छाया हुआ है। वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता है। ज्ञान दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाश दीप है। जब ज्ञान का दीप जलता है तब भीतर और बाहर दोनों आलोकित हो जाते हैं। अंधकार का साम्राज्य स्वतः समाप्त हो जाता है। ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता केवल भीतर के अंधकार मोह-मूचर्छा को मिटाने के लिए ही नहीं, अपितु लोभ और
आसक्ति के परिणामस्वरूप खड़ी हुई पर्यावरण प्रदूषण, हिंसा-आतंकवाद और अनैतिकता जैसी बाहरी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी जरूरी है।दीपावली पर्व की सार्थकता के लिए जरूरी है, दीये बाहर के ही नहीं, दीये भीतर के भी जलने चाहिए। क्योंकि दीया कहीं भी जले उजाला देता है। दीए का संदेश है- हम जीवन से कभी पलायन न करें, जीवन को परिवर्तन दें,
क्योंकि पलायन में मनुष्य के दामन पर बुजदिली का धब्बा लगता है, जबकि परिवर्तन में विकास की संभावनाएँ जीवन की सार्थक दिशाएँ खोज लेती हैं। असल में दीया उन लोगों के लिए भी चुनौती है जो अकर्मण्य, आलसी, निठल्ले, दिशाहीन और चरित्रहीन बनकर सफलता की ऊँचाइयों के सपने देखते हैं। जबकि दीया दुर्बलताओं को मिटाकर नई जीवनशैली की शुरुआत का संकल्प
है।
इस दीपावली पर और एक खास बात | प्रधानमंत्री ने देश को आत्म निर्भर बनाने के लिए स्वदेशी चीजों के उपयोग करने का आव्हान किया है | हमें इस दीपावली पर मौका मिला है कि हम आत्मनिर्भता की ओर अपना कदम और तेजी से बढ़ा सकें क्योकि आजकल मिट्टी के दीयों की टिमटिमाती रोशनी की जगह अब चाइनीज दीपकों, बिजली की लाइटों व मोमबत्ती ने ले ली है। बरसों
से ही मिट्टी के दीपकों को घर में जलाकर दीपावली मनाते चले आए हैं। लेकिन समय के साथ इन दीयों की चमक कहीं लुप्त हो गई है। आधुनिकता के कारण चाइनीज सस्ते दीये, मोमबत्ती, बिजली की टिमटिमाती झालरों की रोशनी ने लोगों को लुभाया। इसके चलते मिट्टी के दीये की सिर्फ शगुन के तौर खरीदी रह गई है। दीपक बनाने से लेकर पकाने तक के सामान में भी कई
गुना वृद्घि हो गई है। इससे मुनाफे में कमी आई है। यही वजह है कि कुम्हार, प्रजापति समाज के लोग अब पुश्तैनी धंधे से तौबा कर रहे हैं और अन्य स्थानों पर रोजगार की तलाश में लगे हैं या रोजगार कर रहे हैं। वर्तमान में कुछ ही बुजुर्ग है जो अपनी पुरानी परंपरा को बचाने के लिए मिट्टी के दीपक चाक घुमाकर बनाते हुए चंद ही जगहों पर शहर में देखने
में मिलते हैं। कुछ परिवार तो मिट्टी के दीपक बनाने की जगह इन्हें खरीद कर बेच रहे है। मेहनत के बाद दीपक बनाने वाले कुम्हार फुटपाथ पर दुकान लगाकर बाजार में ग्र्राहकों के लिए तरसते है। वहीं चाइनीज दीपकों, बिजली की झालरों की बिक्री हाथों-हाथ हो जाती है। मिट्टी के दीयों से वातावरण शुद्घ होता है। दीपक अंधकार से प्रकाश में फैलने की सीख
भी देता है। एक समय था जब कुम्हारों की अपनी एक पहचान थी। लेकिन आज इनकी कमाई सिर्फ खर्चे-पानी तक ही सीमित हो गई है।
दीपावली पर मिट्टी के दीयों का ही इस्तेमाल करें और अपने साथ- साथ कुम्हारों के घरों को भी रोशन करें। क्योंकि चाइनीज लाइट के लिए खर्च किए गए पैसे तो चीन चले जाते है। यदि इनकी जगह मिट्टी के दीए लेंगे तो स्वयं के घर के साथ इनके घर मेंभी रोशनी होगी और पैसा भी भारत में ही रह जाएगा। यही सही मायने में देश व समाज को आत्मनिर्भर व रोशन बनाने
का संकल्प होगा | |