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मायावती के दर्द को भी समझें

सर्वेश कुमार सिंह

Publoshed on 30.10.2020, Author Name; Sarvesh Kumar Singh Freelance Journalist Download PDF

Mayawatiबसपा की प्रमुख मायावती गुरुवार की प्रेस कांफ्रेंस के बाद से कुछ लोगों के निशाने पर हैं। उनकी आलोचना हो रही कि उन्होंने सपा को हराने के लिए किसी भी दल, यहां तक कि भाजपा के प्रत्याशियों को भी वोट दिलाने की बात कैसे कह दी। उनके मुंह से भाजपा का नाम निकलते ही ‘भूचाल’ आ गया है। प्रियंका गांधी बढेरा तो यहां तक कह गईं कि अब कुछ और भी बाकी है। सोशल मीडिया में भी मायावती को निशाने पर लिया जा रहा है। उन्हें भाजपा समर्थक और केसरिया को लाभ पहुंचाने वाला बताया जा रहा है। लेकिन, कोई इस बात को समझने को तैयार नहीं है, कि आखिर उन्होंने इतना कठोर फैसला क्यों लिया ? क्या राजनीतिक आलोचकों ने मायावती के दर्द को समझने की कोशिश की ? मायावती का दर्द जगजाहिर है, किन्तु उसे समझने को कोई तैयार नहीं है। ये वही मायावती हैं, और बसपा है, जिसने 1993 में मुलायम सिंह से गठजोड़ किया और उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। लेकिन, इसके बदले उन्हें क्या मिला ? दो जून 1995 को जानलेवा हमला । राजधानी के स्टेट गेस्ट हाउस में उनको जलाकर मारने की काशिश की गई। उन्हें बचाने के लिए भाजपा के ही तेज तर्रार विधायक स्व. ब्रह्मदत्त द्विवेदी सबसे पहले पहुंचे थे। उनके साहस से ही मायावती का जान बच पायी थी। अन्यथा लोहियावादी तो उनको मार ही डालने पर आमादा थे। इसके बाद 2003 में फिर सपा ने उनके विधायकों को तोड़ा । ‘धोखे पर धोखा’ खाने के बाद भी मायावती ने राजनीतिक फैसला लिया और एक बार फिर मुलायम सिंह यादव के पुत्र और उत्तराधिकारी अखिलेश यादव पर भरोसा कर लिया और 12 जनवरी 2019 को एक बार फिर ऐतिहासिक समझौता हो गया। मायावती ने भरसक प्रयास किया कि लोकसभा चुनाव में सपा के प्रत्याशी जीतें, यहां तक कि उन मुलायम सिंह को जिताने के लिए भी वे मैनपुरी में सभा करने गईं, जिनके साथ 25 साल से कटुता थी और आरोप था कि गेस्ट हाउस काण्ड कराकर उनकी जान लेने की कोशिश की गई।
राजनीतिक विश्वासघात का दंश
समझौते के बाद चुनाव के दौरान ही उनसे दो जून 1995 का केस भी वापस करा लिया गया। इन सबके बावजूद अखिलेश यादव ने मायावती को जिस तरह से राजनीतिक नुकसान पहुंचाने के लिए उनके विधायकों तोड़ा और दलित नेता को राज्य सभा जाने से रोकने की किशिश की । क्या मायावती को इसके बाद भी कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। एक तरफ उनका अस्तित्व मिटाने की कोशिश हो रही है और दूसरी तरफ वे सपा के गठबंधन का भार ढोती रहें। उन्होंने जो फैसला किया है वह राजनीतिक सूझबूझ भरा है। उन्होंने राजनीतिक विश्वासघात के इसी दर्द के कारण अब अलग चलने का फैसला किया है। मायावती ने प्रेस कांफ्रेंस में सपा को हराने के लिए कांग्रेस का साथ देने का बात न कहकर साफ-साफ भाजपा को सहयोग करने का बात कह दी । इसकी वजह भी साफ है।
फिर नई राह पर
राजनीतिक विश्वासघात से आहत मायावती एक बार फिर नए रास्ते पर हैं । उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी और उसकी मुखिया मायावती को प्रयोगों के लिए जाना जाता है। उनके प्रयोग कभी सफल तो कभी विफल भी रहे हैं। उन्हें इन प्रयोगो की बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी। यहां तक कि एक बार उनकी जान को भी खतरा पैदा हो गया था। लेकिन, वे प्रयोगधर्मी राजनीति को पसंद करती हैं। इस बार उन्होंने फिर अकेले चलने का प्रयोग करने का फैसला किया है। हालांकि कि प्रयोग से ही वे 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बना चुकी हैं। मायावती ने गुरुवार ( 29 अक्टूबर ) को समाजवादी पार्टी की राजनीतिक धोखेबाजी से आहत होकर इस दल के साथ गठजोड़ को अपनी भूल बताया । उन्होंने इतना ही नहीं कहा, उन्होंने दो जून 1995 की घटना का केस वापस लेने को भी अपनी गलती बताया। उन्होंने कहा कि हम यदि गहराई से विचार करके फैसला करते तो यह गलती नहीं होती। मायावती का यह दर्द समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के उस फैसले के बाद उभरा जब बसपा के अधिकृत दलित प्रत्याशी को राज्य सभा जाने से रोकने के लिए उनके दल में बगावत करायी गई। बसपा के सात विधायकों को तोड़कर सपा नेता ने सपा समर्थित प्रत्याशी को जिताने की कोशिश की। हालांकि यह साजिश विफल हो गई। क्योंकि, सपा समर्थित उद्योगपति प्रत्याशी का पर्चा ही खारिज हो गया। लेकिन, इस घटना ने मायावती को इतना आहत कर दिया कि उन्होंने पत्रकार वार्ता कर अपने पुराने फैसलों पर अफसोस जाहिर किया। उन्होंने अखिलेश को भी अपने पिता के समान ही व्यवहार करने वाला बताया। उन्होंने यह भी कहा कि अखिलेश ने भी मुलायम सिंह की तरह ही हमारे विधायकों को तोड़ा । मायावती का यह कहना कि ‘वह अगले विधान परिषद् चुनाव में सपा के प्रत्याशियों को हराने के लिए किसी भी हद तक जाएंगी। जरूरत पड़ी तो किसी अन्य प्रत्याशी को भी वोट दिलवाएंगी, यहां तक कि भाजपा के प्रत्याशियों को भी’। कुछ लोगों को खराब लग रहा है। लेकिन, मायावती ने एक बार फिर सपा और कांग्रेस का विरोध करके राजनीति करने का फैसला किया है।
प्रयोगधर्मी राजनीतिक की पहचान
राजनीतिक प्रयोग उन्होंने बसपा के संस्थापक और डीएस-4 तथा वाम सेफ के संस्थापक कांशीराम से ही सीखे हैं। दलित समाज को राजनीति में स्थायी पहचान और सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए कांशीराम को हमेशा याद किया जाएगा। कांशीराम ने ही बहुजन समाज पार्टी की स्थापना के एक दशक के अन्दर ही इसे राजनीतिक सफलता दिलवा दी धी। उन्होंने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के साथ गठजोड़ करके 1993 की चुनाव लड़ा। इस चुनाव से बसपा की ताकत विधान सभा में पहली बार बढ़ी।
लेखक परिचयः सर्वेश कुमार सिंह , स्वतंत्र पत्रकार
पता- 3/11 आफीसर्स कालोनी,
कैसरबाग-लखनऊ-22601
मो. 9140624166

Article Tags: Mayawati
 
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Last modified: 10/30/20