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  युवा और राजनीति  
  Article / Vijay Kumar आलेख / विजय कुमार  
 

Pubilsed on Dated: 2011-04-19 , Tme: 23:25 ist, Upload on Dated  : 2011-04-19 , Tme: 23:25 ist
                                                     
   

युवा और राजनीति


                                                   
विजय कुमार 

राजनीति में युवाओं की भूमिका कैसी हो, इस पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है। पिछले दिनों राहुल गांधी ने विभिन्न माध्यमों से युवा पीढ़ी से सम्पर्क किया। विश्वविद्यालयों में जाकर उन्होंने युवाओं से राजनीति को अपनी आजीविका (कैरियर) बनाने को कहा; पर उनका यह विचार कितना समीचीन है, इस पर विचार आवष्यक है।

यह तो सच ही है कि भारत एक युवा देश है। पिछले लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी बनाम राहुल गांधी की लड़ाई में युवा होने के कारण राहुल भारी पड़े। यद्यपि पर्दे के आगे मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं; पर सरकार में सबसे अधिक सोनिया और राहुल की ही चलती है। राहुल की इस सफलता से सब दलों को अपनी सोच बदलनी पड़ी। सबसे बड़े विपक्षी दल भाजपा ने तो अपना अध्यक्ष ही 52 वर्षीय नितिन गडकरी को चुन लिया। अब सब ओर युवाओं को आगे बढ़ाने की बात चल रही है। भावी राजनीति के एजेंडे पर निःसंदेह अब युवा आ गये हैं।लेकिन युवाओं का राजनीति से जुड़ना और उसे आजीविका बनाना दोनों अलग-अलग बातें हैं; पर राहुल गांधी दोनों को एक साथ मिलाकर भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं।


सबसे पहली बात तो यह है कि राजनीति नौकरी, व्यवसाय या खेती की तरह आजीविका नहीं है। नौकरी शैक्षिक या अनुभवजन्य योग्यता से मिलती है, जबकि खेती और व्यापार प्रायः पुश्तैनी होते हैं। यद्यपि कांग्रेस और उसकी देखादेखी अधिकांश दलों ने राजनीति को भी पुश्तैनी बना लिया है; पर यह सैद्धान्तिक रूप से गलत है। प्रत्याशी भी चुनाव में हाथ जोड़कर वोट मांगते समय यही कहते हैं कि इस बार हमें सेवा का अवसर दें। जनता किसे यह अवसर देती है, यह बात दूसरी है; पर इससे स्पष्ट होता है कि राजनीति आजीविका न होकर समाज सेवा का क्षेत्र है।भारतीय लोकतंत्र एवं संविधान लगभग ब्रिटिश व्यवस्था की नकल है। उसी के अनुरूप यहां जन प्रतिनिधियों को वेतन तथा अन्य भत्ते दिये जाते हैं। जन प्रतिनिधि लगातार अपने क्षेत्र में घूमते हैं। सैकड़ों लोग उनसे मिलने हर दिन आते हैं, जिनके चाय-पानी में बड़ी राशि व्यय होती है। यह राशि सरकार दे, इसमें आपत्ति नहीं है; पर राजनीति किसी के घर चलाने का एकमात्र साधन बन जाए, यह नितांत अनुचित है।


राजनीति में उतार-चढ़ाव आते ही हैं। लोग चुनाव हारते और जीतते रहते हैं। यदि राजनीति ही आजीविका का एकमात्र साधन होगी, तो चुनाव हारने पर व्यक्ति अपना घर कैसे चलाएगा ? यह बिल्कुल ऐसा ही है, जैसे किसी की नौकरी छूट जाए, या उसे व्यापार में घाटा हो जाए या खेती धोखा दे जाए। ऐसे में व्यक्ति अपने मित्रों, परिजनों या बैंक के कर्ज आदि से फिर काम को जमा लेता है; पर राजनीति में तो ऐसा सहयोग नहीं मिलता। फिर उसके परिवार का क्या होगा ? या तो वह चोरी-डकैती करेगा या आत्महत्या। और यह दोनों ही अतिवादी मार्ग अनुचित हैं।एक दूसरे दृष्टिकोण से इसे देखें। यदि सब जन प्रतिनिधि युवा ही बन जाएं, तो भी कुल मिलाकर कितने युवा आजीविका पा सकेंगे। लोकसभा, राज्यसभा, देश भर की विधानसभा और विधान परिषद को मिला कर संभवतः 10,000 स्थान बनते होंगे। यदि इसमें जिला और नगर पंचायतों के प्रतिनिधि मिला लें, तो संख्या 25,000 होगी। यदि इसमें देश की पांच लाख ग्राम पंचायतें और जोड़ लें, तो यह संख्या सवा पांच लाख हो जाएगी। यदि हर युवा राजनीति को ही आजीविका बनाने की सोच ले, तो शेष 40-45 करोड़ युवा क्या करेंगे ?


कौन नहीं जानता कि राजनीति और चुनाव का चस्का एक बार लगने पर आसानी से छूटता नहीं है। व्यक्ति चाहे हारे या जीते; पर वह इस क्षेत्र में ही बना रहना चाहता है। आजकल राजनीति पूर्णकालिक काम हो गयी है। इसमें अत्यधिक पैसा खर्च होता है, जिसकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति भ्रष्ट साधन अपनाता है। इसीलिए स्थानीय नेता प्रायः ठेकेदारी करते मिलते हैं। इस दो नंबरी धंधे से वे एक झटके में लाखों-करोड़ों रु0 पीट लेते हैं। कई नेता एन.जी.ओ बनाकर सेवा के नाम पर घर भरते हैं। क्या राहुल गांधी ऐसे ही भ्रष्ट युवाओं की फौज देश में तैयार करना चाहते हैं ?यदि किसी को भ्रम हो कि युवा लोग भ्रष्ट नहीं होते, तो राजीव गांधी को देख लें। प्रधानमंत्री बनते ही देश ने उन्हें ‘मिस्टर क्लीन’ की उपाधि दी थी। उन्होंने कांग्रेस को सत्ता के दलालों से दूर करने का आह्नान किया था। सबको लगा था कि राजनीतिक उठापटक से दूर रहा यह व्यक्ति सचमुच कुछ अच्छा करेगा। इसीलिए सहानुभूति लहर के बीच जनता ने उसे संसद में तीन चौथाई बहुमत दिया; पर कुछ ही समय में पता लग गया कि वह भी उसी भ्रष्ट कांग्रेसी परम्परा के वाहक हैं, जिस पर उनके नाना, मां और आम कांग्रेसी चलते रहे हैं। मिस्टर क्लीन बोफोर्स दलाली खाकर अंततः ‘मिस्टर डर्टी’ सिद्ध हुए।


अपनी अनुभवहीनता और देश की मिट्टी से कटे होने के कारण राजीव गांधी के अधिकांश निर्णय नासूर सिद्ध हुए। उन्होंने ही अंग्रेजीकरण को अत्यधिक बढ़ावा दिया, जिससे ग्राम्य प्रतिभाओं के उभरने का मार्ग सदा को बंद हो गया। पहले गरीब व्यक्ति अपने बच्चों को पाठशाला में भेजकर संतुष्ट रहता था; पर आज अंग्रेजी बोलने वाले ही नौकरी पा सकते हैं। इसलिए अपना पेट काटकर भी लोग बच्चों को महंगे अंग्रेजी विद्यालय में भेजने को मजबूर हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण भारत में स्थानीय भाषा और बोलियों का मरना जारी है। यह सब राजीव गांधी की ही देन हैं।विदेश नीति के मामले में भी राजीव गांधी अनाड़ी सिद्ध हुए। उन्होंने तमिलनाडु की राजनीति में कांग्रेसी प्रभाव बढ़ाने के लिए श्रीलंका में लिट्टे को बढ़ावा दिया; पर जब लिट्टे सिर पर सवार हो गया, तो उन्होंने वहां शांति सैनिकों को भेज दिया। इससे भारत के सैकड़ों सैनिक मारे गये और विश्व भर में हमारी थू-थू हुई। श्रीलंका जैसे मित्र देश की एक बड़ी जनसंख्या के मन में भारत के प्रति स्थायी शत्रुता का भाव पैदा हो गया। राजीव की हत्या भी इसीलिए हुई। स्पष्ट है कि राजनीति में यौवन की अपेक्षा देश-विदेश के मामलों का अनुभव अधिक महत्वपूर्ण है।


लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि युवा पीढ़ी राजनीति से अलिप्त हो जाए; उसे देश के वर्तमान और भविष्य से कुछ मतलब ही न हो ? यदि ऐसा हुआ, तो यह बहुत ही खतरनाक होगा। इसलिए उन्हंे भी राजनीति में सक्रिय होना चाहिए; पर उनकी सक्रियता का अर्थ सतत जागरूकता है। ऐसा हर विषय, जो उनके आज और कल को प्रभावित करता है, उस पर वे अहिंसक आंदोलन कर देश, प्रदेश और स्थानीय जनप्रतिनिधियों को अपनी नीति और नीयत बदलने पर मजबूर कर दें। ऐसा होने पर हर दल और नेता दस बार सोचकर ही कोई निर्णय लेगा।स्वाधीनता के आंदोलन में हजारों युवा पढ़ाई छोड़कर कूदे थे। क्या भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, आजाद आदि राजनीतिक रूप से निष्क्रिय थे, चूंकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा ? 1948 में गांधी हत्या के झूठे आरोप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगे प्रतिबंध के विरुद्ध लगभग 70,000 स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। उनमें से अधिकांश युवा थे। सत्तर के दशक में असम में घुसपैठ विरोधी आंदोलन हुआ। 1974-75 में इंदिरा गांधी के भ्रष्ट प्रशासन, आपातकाल और फिर संघ पर प्रतिबंध के विरुद्ध भी एक लाख लोग जेल गये। श्रीराम मंदिर आंदोलन में लाखों हिन्दुओं ने कारावास स्वीकार किया। यद्यपि इनमें से दस-बीस लोग सांसद और विधायक भी बने; पर क्या शेष लोग राजनीतिक रूप से निष्क्रिय माने जाएंगे, चूंकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा ?


स्पष्ट है कि राजनीतिक सक्रियता का अर्थ चुनाव लड़ना नहीं, सामयिक विषयों पर जागरूक व आंदोलनरत रहना है। बहुत से लोगों के मतानुसार वोट देने की अवस्था भले ही 18 वर्ष कर दी गयी हो; पर चुनाव लड़ने की अवस्था 50 वर्ष होनी चाहिए। जिसे नौकरी, खेती, कारोबार और अपना घर चलाने का ही अनुभव न हो; जिसने जीवन के उतार-चढ़ाव न देखें हों, वह अपने गांव, नगर, जिले, राज्य या देश को कैसे चला सकेगा ?भारतीय जीवन प्रणाली भी इसका समर्थन करती है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ के बाद 25 वर्ष का वानप्रस्थ आश्रम समाज सेवा को ही समर्पित है। इस समय तक व्यक्ति अपने अधिकांश घरेलू उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाता है। उसे दुनिया के हर तरह के अनुभव भी हो जाते हैं। काम-धंधे में नयी पीढ़ी आगे आ जाती है। यही वह समय है, जब व्यक्ति को समाज सेवा के लिए अपनी रुचि का क्षेत्र चुन लेना चाहिए, जिसमें से राजनीति भी एक है। हां, यह ध्यान रहे कि उसे 75 वर्ष का होने पर यहां भी नये लोगों के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए।


यदि युवा पीढ़ी तीन सी (बपदमउंए बतपबामज - बंतममत . सिनेमा, क्रिकेट एवं कैरियर) से ऊपर उठकर देखे, तो सैकड़ों मुद्दे उनके हृदय में कांटे की तरह चुभ सकते हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, कामचोरी, राजनीति में वंशवाद, महंगी शिक्षा और चिकित्सा, खाली होते गांव, घटता भूजल, मुस्लिम आतंकवाद, माओवादी और नक्सली हिंसा, बंगलादेशियों की घुसपैठ, हाथ से निकलता कश्मीर, जनसंख्या के बदलते समीकरण, किसानों द्वारा आत्महत्या, गरीब और अमीर के बीच बढ़ती खाई आदि तो राष्ट्रीय मुद्दे हैं। इनसे कहीं अधिक स्थानीय मुद्दे होंगे, जिन्हें आंख और कान खुले रखने पर पहचान सकते हैं। आवश्यकता यह है युवा चुनावी राजनीति की बजाय इस ओर सक्रिय हों। उनकी ऊर्जा, योग्यता, संवेदनशीलता और देशप्रेम की आहुति पाकर देश का राजनीतिक परिदृश्य निश्चित ही बदलेगा।
 

 

क्रांतिपर्व होली

विजय कुमार 


वसंत पंचमी के आते ही गांव, नगर के चौराहों पर झंडा गाड़कर कुछ लकड़ियां रख दी जाती हैं। गांव की चौपालों पर रात में लोग एकत्रित होकर फाग गाने लगते हैं। लोकगीत, संगीत और लोकनृत्य का माहौल बन जाता है। बच्चा हो या बूढ़ा, सबके पैर स्वयमेव ही थिरकने लगते हैं। खेतों में पकता गेहूं कृषक की सांसों को महका देता है। महिलाएं भी अपना अलग समूह बनाकर तरंगित हो उठती हैं। शीत का प्रकोप कम होने लगता है। वसंत की गुनगुनी आहटें सबको साफ सुनाई देने लगती हैं। यह प्रतीक है इस बात का कि वसंत के सबसे मधुर पर्व होली ने दस्तक दे दी है। 


होली के साथ जुड़ी अनेक मान्यताएं हैं। सबसे प्रमुख मान्यता अत्याचारी राजा हिरण्यकशिपु, उसकी षड्यन्त्रकारी बहिन होलिका, सरल स्वभाव वाली रानी और उनके प्रभुभक्त पुत्र प्रह्लाद का स्मरण दिलाती है। राजा ने तपस्या से भगवान से यह वरदान ले लिया था कि उसे दिन हो या रात, घर के अंदर हो या बाहर, अस्त्र हो या शस्त्र, मानव हो या पशु, धरती हो या आकाश, कोई कहीं न मार सके। इस वरदान से वह इतना शक्तिशाली हो गया कि उसने पूरे राज्य में घोषणा करा दी कि अब कोई भगवान का नाम नहीं लेगा। यदि लेना हो, तो उसका ही नाम लिया जाये; पर उसके घर में उसका पुत्र प्रह्लाद ही प्रभुभक्त निकल आया। रानी सदा उसी का पक्ष लेती थी। अतः राजा की ओर से दोनों को ही उपेक्षा और प्रताड़ना मिलती थ राजा ने अनेक तरह से प्रह्लाद को समझाने का प्रयास किया; पर वह नहीं माना। फिर उसे कई बार छल-बलपूर्वक मारने का प्रयास किया; पर वह हर बार बच जाता था। अंततः उसने अपनी बहिन के साथ मिलकर उसे जिंदा ही जला देने की तैयारी कर ली। कहते हैं कि होलिका को भी आग में न जलने का वरदान मिला था। अतः वह प्रह्लाद को लेकर चिता में बैठ गयी; पर भगवान की कृपा से वह बच गया और होलिका जल गयी। 


अब राजा ने उसे खंभे से बांधकर मारना चाहा; पर तभी खंभे से नरसिंह भगवान प्रकट हुए। उनका आधा शरीर मनुष्य और आधा शेर का था। वे राजा को घसीटकर महल के दरवाजे पर ले आये और अपनी जंघाओं पर लिटाकर नाखूनों से उसका पेट फाड़ दिया। इस प्रकार भगवान के वरदान की भी रक्षा हुई और अत्याचारी राजा का नाश भी। उसी के स्मरण में आज तक होली मनाने की प्रथा है। भारतीय इतिहास की एक विशेषता है कि बड़ी-बड़ी घटनाओं को कुछ प्रतीकों के माध्यम से कहने का प्रयास किया गया है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि कोई ऐतिहासिक घटना हजारों, लाखों साल बीत जाने पर अपने असली स्वरूप में लोगों को याद नहीं रहती; पर कुछ कहानियां बच जाती हैं। लेकिन यदि थोड़ा सा विचारों की गहराई में जाने का प्रयास करें, तो इतिहास का वह पर्दा हट जाता है और वास्तविक घटना अपने सही स्वरूप में प्रकट हो जाती है। आइये, इसी आधार पर होली का विश्लेषण किया।


यहां अत्याचारी राजा हिरण्यकशिपु, उसकी बहिन होलिका, रानी और पुत्र प्रह्लाद सब वास्तविक पात्र हैं। राजा तानाशाह था। तानाशाहों की सत्ता के आसपास एक जुंडली विकसित हो ही जाती है। होलिका उसी की मुखिया थी। जनता में से उसी का काम होता था, जो होलिका को प्रसन्न कर सकता था। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका से लेकर पुलिस और सेना तक पर इसी जुंडली का कब्जा था। इससे जनता बहुत दुखी थी; पर निरंकुश सत्ता से कौन टकराये। यही समस्या थी। दूसरी ओर लोकतंत्र और कानून के राज्य के समर्थक भी अनेक लोग थे; पर वे प्राणभय से चुप रहते थे। लेकिन कितने समय तक ऐसा चलता ? धीरे-धीरे ऐसे लोग रानी और प्रह्लाद के आसपास एकत्र होने लगे। इस प्रकार सम्पूर्ण राज्य में दो दल बन गये। पुलिस, प्रशासन, गुप्तचर सेवा और सेना भी दो भागों में बंट गयी। एक ओर तानाशाही सत्ता की मलाई खाने वाले राजा और उसकी बहिन होलिका के समर्थक थे, तो दूसरी ओर न्याय के पक्षधर। दोनों के बीच प्रायः संघर्ष भी होने लगे। इनमें कभी राजा की सेना जीतती, तो कभी रानी की। राजा ने प्रह्लाद को कई बार मारने का प्रयास किया; पर उसे गुप्तचरों से सब षड्यन्त्रों की जानकारी पहले ही मिल जाती थी, अतः वह बच निकलता था। प्रह्लाद को जहर देने, पहाड़ से गिराने या हाथी के सामने डालने वाली घटनाओं का यही अर्थ है। 


अब आइये, नृसिंह (या नरसिंह) भगवान वाली घटना का विश्लेषण करें। राजा फागुन पूर्णिमा की रात में अपने पुत्र को जलाने की तैयारी कर रहा है, यह सूचना गुप्तचरों ने रानी को कई दिन पहले ही दे दी। रानी समझ गयी कि अब निर्णायक संघर्ष की घड़ी आ गयी है। उसने सारे राज्य में अपने समर्थकों को संदेश भेज दिया कि वे अस्त्र-शस्त्र लेकर इसी दिन महल पर हमला बोल दें। इधर राजा ने एक बड़ी चिता तैयार करा रखी थी। उसने प्रह्लाद को पकड़कर खंभे से बांध दिया और सत्ता के नशे में चूर होकर पूछा - बता कहां है तेरा भगवान, कहां हैं तेरे समर्थक, कहां है वह जनता, जिनके बल पर तू और तेरी मां मुझे काफी समय से चुनौती दे रहे हैं। राजा की बहिन भी क्रूर हंसी हंस रही थी। प्रह्लाद ने नम्रतापूर्वक कहा - पिताजी, जनता जनार्दन से डरिये। वही वास्तविक भगवान है। वह सब जगह विद्यमान है। राजा ने तलवार उठाकर पूछा - तो क्या वह इस निर्जीव खंभे में भी है ? प्रह्लाद ने कहा - हां पिताजी, वह केवल इस खंभे में ही नहीं, दीवारों, फर्श और छतों पर भी है।


इधर तो यह वार्तालाप चल रहा था, उधर रानी समर्थकों ने महल पर हमला बोल दिया। केवल सैनिक ही नहीं, तो सामान्य जनता भी आज बदला लेने को तत्पर होकर महल पर टूट पड़ी। जिसके हाथ जो लगा, लेकर चल दिया। किसानों ने अपनी खुरपी और फावड़े लिये, तो श्रमिकों ने कील और हथोड़े; व्यापारी अपने तराजू, बाट लेकर ही चल दिये। महिलाओं ने भी रसोई में काम आने वाले चिमटे और बेलन उठा लिये। जिसके हाथ कुछ नहीं लगा, उसने पेड़ की टहनी ही तोड़ ली या फिर हाथ में पत्थर ले लिया। सबके मन में एक ही आकांक्षा थी कि आज उस अत्याचारी राजा और उसकी बहिन को मजा चखाना है। शांत रहकर अपने काम में लगे रहने वाले लोगों ने सिंह का रूप ले लिया। नरसिंह अवतार हो गया।लोगों ने द्वारपालों को मारकर महल के दरवाजे तोड़ दिये। जेलों में बंद रानी समर्थकों को मुक्त करा दिया। सब विजयी उद्घोष करते हुए उस स्थान की ओर बढ़ चले, जहां राजा अपने पुत्र को ही जलाने की तैयारी कर रहा था। पुलिस, प्रशासन और सेना ने जब जनता का रौद्र रूप देखा, तो वे भी उनके साथ ही मिल गये। सबने मिलकर राजा और उसकी बहिन को पकड़ लिया। राजा को तो सबने मुक्कों, और लातों से ही मार डाला।


यह देखकर होलिका ने भागना चाहा; पर जनता आज अपने बस में भी नहीं थी। उन्होंने उसे बांधकर उसी चिता में डाल दिया, जिसे प्रह्लाद को जलाने के लिए बनाया गया था। उसने बहुत हाथ-पैर जोड़े। नारी होने की दुहाई दी; पर जनता ने उसे माफ नहीं किया और चिता में आग लगा दी। इसके बाद लोग पूरे राज्य में फैल गये और सारी रात ढूंढ-ढंूढकर राजा समर्थकों का वध किया। इस प्रकार राजा और उसकी जुंडली का अंत हुआ। इधर तो यह कार्यक्रम चल रहा था, उधर पूर्व दिशा में भगवान भुवन भास्कर अपनी अपूर्व छटा के साथ प्रकट हुए। कुछ ही समय में पूरे राज्य में अत्याचारी राजा और उनके समर्थकों के अंत का समाचार फैल गया। लोग सड़कों पर उतरकर नाचने लगे। अबीर और गुलाल चारों ओर उड़ने लगा। एक दूसरे से गले मिलकर बधाई देने लगे। निश्चित समय पर रानी और राज्य के प्रबुद्ध नागरिकों की सहमति से प्रह्लाद को गद्दी पर बैठाया गया। राज्य में फिर से सुशासन की स्थापना हुई।


स्पष्ट है कि होली एक अत्याचारी शासक एवं उसकी जुंडली के विरुद्ध मूक आंदोलन की कहानी है, जो अंततः सशस्त्र क्रांति में बदल गयी। कोई इसे कल्पना की उड़ान कह सकता है; पर विश्व इतिहास में ऐसी कुछ अन्य घटनाएं भी हुई हैं। 1789 में फ्रांस की राज्यक्रांति को स्मरण करें। रानी मेरी एंटोयनेट का शासन था। वह जनता के प्रति उत्तरदायित्वों से बिल्कुल विमुख रहती थी। हर दिन नये वस्त्र, आभूषण और जूते वह पहनती थी। फसल बरबाद हो जाने के बाद एक बार जब जनता ने भूख से व्याकुल होकर उसके महल पर प्रदर्शन किया, तो उसने जनता को रोटी के बदले केक और पेस्ट्री खाने की सलाह दी। ऐसी निरंकुश शासक थी वह।पर उसके शासन के विरुद्ध भी आंदोलन चला। आंदोलनकारियों को जेलों में बंद कर दिया गया। जोसेफ गिलोटीन ने गिलोटीन नामक एक यंत्र का आविष्कार किया, जिस पर चढ़ाकर क्रांतिकारियों को मृत्युदंड दिया जाता था। इसमें तेज धार वाला लोहे का एक भारी फलक होता था, जो रस्सी से बंधा रहता था। रस्सी छोड़ते ही वह तेजी से गिरकर नीचे बांधकर लिटाये गये व्यक्ति की गर्दन काट देता था। हजारों लोगों को इसी तरह मारा गया। 


आखिर एक समय ऐसा आया, जब जनता के सब्र का बांध टूट गया। उसने रानी के महल पर हमला बोल दिया। आंदोलनकारियों को जिस सबसे बड़ी जेल में रखा गया था, उस बैस्तील की जेल र्की इंट से ईंट बजा दी गयी। बंदियों को मुक्त करा लिया गया। सब रानी के महल की ओर चल दिये। अंततः रानी का भी वही हुआ, जो सभी तानाशाहों का होता है। उसे भी गिलोटीन पर चढ़ाकर ही मृत्युदंड दिया गया। इसके बाद फ्रांस में नये शासन की स्थापना हुई। भारत में 1975 से 1977 के घटनाक्रम को याद करें। आपातकाल के रूप में इंदिरा गांधी की तानाशाही; जयप्रकाश नारायण तथा हजारों विपक्षी नेताओं को जेल; मीडिया पर सेंसरशिप का शिकंजा, सत्ता का दुरुपयोग करने वाली संजय गांधी, बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल आदि की जुंडली; इंदिरा गांधी की गर्वोक्ति कि आपातकाल लगाने पर एक कुत्ता भी नहीं भौंका; रेलें समय से चल रही हैं और लोग कार्यालयों में समय से आ रहे हैं; सरकारी साधु विनोबा भावे द्वारा आपातकाल को अनुशासन पर्व बताकर उसका समर्थन; राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध; और भी न जाने क्या-क्या ?


पर इसके विरुद्ध संघ के नेतृत्व में विरोधी दलों का अभूतपूर्व अहिंसक सत्याग्रह; एक लाख स्वयंसेवकों तथा 10,000 हजार अन्य लोकतंत्र समर्थकों की जेलयात्रा; चुनाव की घोषणा होते ही सभी विपक्षी दलों का एक मंच पर आना; और फिर चुनाव में इंदिरा से लेकर संजय गांधी तक सब धराशायी। उ0प्र0 की 85 में से एक सीट भी कांग्रेस को नहीं मिली। पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस पर झाड़ू लग गयी। यही है मूक क्रांति।वस्तुतः होली के घटनाक्रम को भी इसी दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है। समय बीतने के साथ-साथ दुर्भाग्य से होली के साथ इतनी कुरीतियां और कलुष जुड़ गये हैं कि कई बार तो सज्जन लोग इस दिन घर से निकलना ही पसंद नहीं करते। पेड़ पर्यावरण संरक्षण के लिए कितने उपयोगी हैं, यह सोचे बिना लाखों पेड़ों को इस दिन अपने प्राण त्यागने पड़ते हैं। कोई समय था, जब जनसंख्या बहुत कम और जंगल बहुत अधिक थे; ऐेसे में दो-चार हजार पेड़ों के जलने से कोई खास अंतर नहीं पड़ता था; पर आज तो मामला उल्टा है। यदि जनसंख्या ऐसे ही बढ़ती रही और पेड़ इसी प्रकार कटते रहे, तो आने वाले समय में पानी की बोतल की तरह हमें सांस लेने के लिए भी कृत्रिम आक्सीजन के टैंक साथ लेकर चलने होंगे।


होली जलाने के लिए महीना भर पहले से ही चौराहों को घेर लेना भी अनुचित है। इससे वाहनों को आने जाने में परेशानी होती है। कुछ वर्ष पूर्व मेरठ में होली दहन के समय एक बाजार में आग लग गयी; पर फायर ब्रिगेड की गाड़ियां लाख प्रयत्न करने पर भी वहां नहीं पहंुच सकीं। क्योंकि होली दहन के कारण हर चौराहा जाम था। होली ऊंची से ऊंची बनाने के चक्कर में न जाने कितने बिजली और टेलिफोन के तार भी जल जाते हैं। अब समय आ गया
है कि धार्मिक और सामाजिक नेताओं को इन कुप्रथाओं के विकल्प देने चाहिए। अनेक संस्थाएं अब होली स्थापना और दहन के स्थान पर यज्ञ कराती हैं। यह प्रथा अच्छी है। इसका प्रचार-प्रसार होना चाहिए।यों तो होली को प्रेमपर्व कहा जाता है; पर कुछ लोग गंदे रासायनिक रंगो और कीचड़ आदि का प्रयोग कर न जाने कितनों को अपना शत्रु बना लेते हैं। शराब और भांग ने इस पर्व के महत्व को कम ही कम किया है। आवश्यकता है कि इन सब कुरीतियों को त्यागकर होली के वास्तविक अर्थ को स्मरण करें। होली के रूप में परस्पर प्रेम बांटने का जो अवसर वसंत ऋतु ने हमें उपलब्ध कराया है, उसका भरपूर आनंद लें। प्रेम बांटे और प्रेम पायें। यही है होली का वास्तविक संदेश।

 

                            दीपावली और पर्यावरण

विजय कुमार 

 

  हर बार की तरह इस बार भी प्रकाश का पर्व दीपावली सम्पन्न हो गया। लोगों ने जमकर आनंद मनाया; घर और प्रतिष्ठान सजाए; मिठाई खाई और खिलाई; उपहार बांटे और स्वीकार किये; बच्चों ने पटाखे और फुलझड़ियां छोड़ीं; कुछ जगह आग भी लगी; पर दीप पर्व के उत्साह में यह सब बातें पीछे छूट गयीं।

  हर बार की तरह कुछ पर्यावरणवादियों ने दीवाली से कुछ दिन पहले से पटाखों के विरुध्द अभियान छेड़ा। उन्होंने इनसे होने वाले शोर और प्रदूषण की हानि गिनाते हुए लोगों से इन्हें न छुड़ाने की अपील की। उन्होंने बताया कि इससे बच्चों, बूढ़ों और बीमारों को ही नहीं, तो पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों को बहुत परेशानी होती है। सरकारी दूरदर्शन भी उनके इस अभियान में सहायता करता है। लखनऊ में कुछ लोग चिड़ियाघर के जानवरों के दुख से इतने दुखी हो जाते हैं कि वे पटाखे न छुड़ाने की मार्मिक अपील करते हुए जुलूस निकालते हैं। ऐसा और जगह भी होता होगा।

  लेकिन इसके बाद भी पटाखों का शोर और प्रदूषण हर साल बढ़ रहा है। दीवाली के बाद अखबारों ने प्रदूषणमापी उपकरणों के सौजन्य से इस बार भी बताया कि शहर के किस क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर कितना बढ़ा। कितने वृध्दों को दीवाली की रात में विभिन्न रोगों के शिकार होकर चिकित्सालय की शरण लेनी पड़ी। यद्यपि पिछले 30 साल से मैंने पटाखे नहीं फोड़े; लेकिन इस अवसर पर जो पर्यावरण प्रेमी दिखावा करते हैं, मैं उसका भी विरोधी हूं।

  सच तो यह है कि व्यक्ति अपने उत्साह एवं उल्लास को विभिन्न तरीकों से प्रकट करता है। घर में किसी का विवाह, जन्म या जन्मदिन हो, तो लोग घर की रंगाई, पुताई और साज-सज्जा करते हैं। रिश्तेदार और मित्रों के साथ सहभोज का आनंद लेते हैं। इस समय होने वाला नाच-गाना, गीत-संगीत आदि भी उल्लास के प्रकटीकरण का एक तरीका ही है। गरबा, दुर्गा पूजा, देवी जागरण जैसे धार्मिक आयोजनों में एक-दो दिन होने वाला शोर भी लोग सह लेते हैं। यद्यपि अति होने पर वह परेशानी का कारण बन जाता है।

   लेकिन दीवाली पर हर नगर और ग्राम पटाखों की आवाज से गूंजने लगता है। रात के तीन-चार घंटे में शोर और प्रदूषण का स्तर बहुत बढ़ जाता है। ऐसे में कुछ लोगों को परेशानी होनी स्वाभाविक है। इसका कुछ प्रबन्ध होना ही चाहिए; पर प्रदूषण से जुड़ी कुछ बातें और भी हैं, जिनकी ओर पर्यावरणवादी ध्यान नहीं देते। इसीलिए दीवाली पर किये जाने वाले उनके प्रयास निष्फल सिध्द हो रहे हैं।

  कृपया ये पर्यावरण प्रेमी बताएं क्या शोर और प्रदूषण केवल दीवाली पर ही होता है ? या इसे यों कहें कि दीवाली की रात में तो शोर और प्रदूषण कुछ घंटों के लिए ही होता है। वातावरण में जो बारूदी गंध और धुआं फैलता है, वह एक-दो दिन में छंट भी जाता है; पर जिन चीजों से सारे साल प्रदूषण फैलता है, उसके बारे में वे मौन क्यों रहते हैं ?

   इस समय सबसे अधिक प्रदूषण वातानुकूलित यंत्रों से हो रहा है। बाजार में आने वाली 90 प्रतिशत कारें वातानुकूलित उपकरणों से लैस हैं। नये बनने वाले प्राय: सभी भवनों और कार्यालयों में केन्द्रीय वातानुकूलन की व्यवस्था की जा रही है। इससे निकलने वाली जहरीली गैसें ओजोन परत को काट रही हैं, जिससे धरती का तापमान बढ़ रहा है। सम्पन्न लोग तो कूलर और ए.सी लगवा लेते हैं; पर उन निर्धनों से पूछो, जिनकी झोपड़ी में बिजली ही नहीं है। ए.सी से सबसे अधिक हानि उन्हें ही होती है, जो इसे प्रयोग ही नहीं करते।

  बढ़ती जनसंख्या और नगरीकरण से जंगल कट रहे हैं। नदियों और धरती का पानी सूख रहा है। पर्वतीय हिमानियां सिकुड़ रही हैं। पशु और पक्षियों की संख्या भी घट रही है; पर मक्खी-मच्छर और इनके कारण रोग फैल रहे हैं। प्लास्टिक का उपयोग और गंदगी के ढेर बढ़ रहे हैं। पर्यावरण प्रेमी बताएं कि वे निजी और सामूहिक रूप से इस बारे में क्या कर रहे हैं ?

   यही हाल मस्जिदों के शोर का है। भारत की शायद ही कोई मस्जिद हो, जिस पर बड़े-बड़े चार-छह भोंपू न लगे हों। हजारों मस्जिदें तो ऐसी हैं, जिनमें नमाज के लिए चार आदमी भी नहीं आते। शहर के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में जब पांच बार अजान दी जाती है, तो एक साथ सैकड़ों भोंपुओं से निकलने वाले स्वर से क्या प्रदूषण नहीं होता ? सूर्योदय की अजान से कितने बच्चे, बूढ़े और बीमारों को परेशानी होती है। गर्मियों में छत पर सोने वालों की नींद तो उस समय अनिवार्य रूप से टूटती ही है।

  रमजान के समय तो हाल और बुरा रहता है। मुस्लिम बहुल मोहल्लों में सारी रात बाजार और मजलिसों का दौर चलता है। सुबह तीन बजे से ही मस्जिद के भोंपू लोगों को सहरी खाने के लिए जगाने लगते हैं। रात को दस से प्रात: छह बजे तक का प्रतिबन्ध यहां लागू नहीं होता। जब ध्वनिवर्धक यंत्र नहीं थे, क्या तब अजान, मजलिस और सहरी नहीं होती थी। 

  ऐसे बहुत सारे विषय हैं, जिस पर दो-चार दिन नहीं, पूरे वर्ष ध्यान देना होगा। भयानक आवाज वाले डी.जे से लेकर वाहनों के कर्कश हार्न पर प्रतिबंध लगना ही चाहिए। अधिक शोर और प्रदूषण वाले पटाखे मुख्यत: विदेशों से आ रहे हैं। इन्हें शासन क्यों नहीं रोकता ? 15 अगस्त और 26 जनवरी को शासकीय स्तर पर आतिशबाजी होती है। दिल्ली में पिछले दिनों हुए खेलों में भी यही हुआ। इसका पर्यावरणवादियों ने कितना विरोध किया ?

  सच तो यह है कि बालपन और युवावस्था में सब पटाखे छुड़ाते ही हैं। बचपन में इन पर्यावरणवादियों ने बड़ों के मना करने पर भी पटाखे छुड़ाए होंगे। यही आज उनके बच्चे करते हैं। विरोध से इन्हें रोकना संभव नहीं है। इसके लिए तो शासन को इनका निर्माण ही रोकना होगा; पर इसके साथ ही पर्यावरणप्रेमी सभी तरह के शोर और प्रदूषण के विरुध्द आवाज उठाएं। अन्यथा उनका यह प्रयास पाखंड समझा जाएगा। वर्तमान स्थिति यही है और यही उनकी विफलता का कारण भी है।          

- विजय कुमार, संकटमोचन आश्रम, रामकृष्णपुरम्/6, नई दिल्ली - 22

 

 

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(www.vijaipath.blogspot.com)

 

विजयदशमी पर्व पर विशेष                                 

             शक्ति ही तो शान्ति का आधार है

विजय कुमार 

   शान्ति की आकांक्षा किसे नहीं होती; मानव हो या पशु, हर कोई अपने परिवार, मित्रों और समाज के बीच सुख-शांति से रह कर जीवन बिताना चाहता है। विश्व के किसी भी भाग में सभ्यता, संस्कृति, साहित्य और कलाओं का विकास अपनी पूर्ण गति से शांति-काल में ही हुआ है; लेकिन इस धारणा को स्वीकार कर लेने के बाद, यह भी सत्य है कि सृष्टि के निर्माण के समय से ही शांति के साथ-साथ अशांति, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा और उठापटक का दौर भी चलता रहा है।

  इतिहास का कोई भी कालखंड उठा लें; देवों के विरोध में दानव, सुरों के विरोध में असुर, सज्जनों के विरोध में गुंडे....सदा खड़े दिखायी देते हैं। संघर्ष का कारण चाहे सत्ताा की लालसा हो या धन-सम्पत्तिा की लूट; अधिकाधिक धरती पर अधिकार करने की इच्छा हो या अपने विचारों को जबरन दूसरों पर थोपने की जिद; पर यह संघर्ष सदा होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। अच्छाई और बुराई के संघर्ष में सफलता सदा अच्छाई को ही मिलती है; पर बुरा विचार भी नष्ट नहीं होता। इसलिए उन तत्वों की खोज सदा चलती रहनी चहिए, जिनसे शांति प्राप्त हो सकती है।

  कहते हैं कि महावीर स्वामी के प्रवचन में आकर एक विषद्दर सर्प ने दया और अहिंसा का मार्ग अपनाकर किसी को न काटने का निश्चय किया। इतना ही नहीं तो उसने फुंकारना भी छोड़ दिया। धीरे-धीरे सर्प के अंहिसा व्रत की बात सब ओर फैल गयी; पर इसका एक विपरीत परिणाम यह हुआ कि अब आते-जाते लोगों ने उससे डरना ही छोड़ दिया। इतना ही नहीं तो बच्चों ने उसे पत्थर मार-मार कर बुरी तरह घायल भी कर दिया।

   अब सर्प बड़े असमंजस में फंस गया। यदि वह फिर से काटने लगे, तो इससे अहिंसा व्रत भंग होता है; और यदि शांत पड़ा रहे, तो लोग उसके प्राण ले लेंगे, यह निश्चित था। अत: उसने महावीर स्वामी से मिलकर अपनी समस्या उनके सामने रखी। इस पर स्वामी जी ने उसे कहा कि मैंने तुम्हें किसी को अनावश्यक काटने को मना किया था; पर इसका अर्थ यह नहीं कि तुम फुंकारना भी बन्द कर दो। इससे तो लोग तुम्हें निश्चय ही मार डालेंगे।

   सर्प की समझ में स्वामी जी के प्रवचन का मर्म अब आया और उसने जैसे ही फिर से जोरदार फुंकार भरी, सब लोग उससे पूर्ववत डरने लगे और उससे छेड़छाड़ करने का साहस फिर किसी ने नहीं किया। स्पष्ट है कि अहिंसा और शांति का अर्थ चुपचाप पिटना नहीं, अपितु किसी का अनावश्यक परेशान न करना है।

  शांति का यह सिध्दान्त जंगल में भी पूर्णत: लागू होता दिखायी देता है। दो शेर आपस में प्राय: नहीं लड़ते; पर शेर और बकरी के आमने-सामने आने पर क्या होता है, यह सब जानते हैं। इसीलिए गांधी जी जैसे अहिंसावादी को भी यह कहने पर मजबूर होना पड़ा कि दुनिया में शांति के सबसे बड़े दुश्मन वे कमजोर लोग हैं, जो हिंसा और अत्याचार के लिए गुंडाें को उकसाते हैं।

  अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में कुछ वर्ष पूर्व की वह घटना स्मरण करें, जब सोवियत संघ के विघटन के बाद अमरीका ने एक बार रूस को धमकाया, तो रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति येल्तसिन ने उतनी ही कड़ाई से बता दिया कि हम कमजोर अवश्य हो गये हैं; पर अमरीका यह न भूले कि हमारे पास परमाणु अस्त्र-शस्त्र आज भी जीवित अवस्था में हैं। कहना न होगा कि इसका तत्काल असर हुआ और फिर अमरीका ने समय-असमय रूस को धमकाना बन्द कर दिया।

  प्राचीन मान्यता के अनुसार सृष्टि के आदिकाल में सब ओर शांति का साम्राज्य था। उस अवस्था का वर्णन करते हुए पुराणकारों ने कहा है -

न राज्यं नैव राजासीत्, न दंडयो न च दांडिका

धर्मणैव प्रजा सर्वे, रक्षंतिस्म परस्परम्॥

  अर्थात उस समय न कोई राजा था और न ही राज्य; न कोई दंड था और न ही दंड देने वाला, क्योंकि गलत काम न करने के कारण कोई दंड का पात्र ही नहीं था। धर्म के आधार पर ही सब एक दूसरे की रक्षा करते थे। स्पष्ट है कि इस सुव्यवस्था का कारण यह था कि सब धर्म अर्थात नियम के अनुसार चलते हुए अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते थे तथा इस प्रकार अपने साथ-साथ स्वयमेव ही दूसरे की भी रक्षा हो जाती थी।

   पर समय बीतने के साथ ही मानव जीवन की दुष्प्रवृत्तिायों ने भी जोर मारना प्रारम्भ कर दिया, और इसी के परिणामस्वरूप धरती पर लड़ाई-झगड़े बढ़ने लगे। इस अव्यवस्था को समाप्त करने के लिए समाज के तत्कालीन विद्वान एवं प्रभावी लोगों, ऋषि-मुनियों आदि ने मिलकर दंडशक्ति से सम्पन्न्न 'राजा' का निर्माण किया। राजा नामक इस व्यवस्था और उसके हाथ में स्थित दंडशक्ति के कारण समाज में एक बार फिर से शांति की स्थापना हुई। अर्थात् शांति के लिए क्षात्रशक्ति या दंडशक्ति की आवश्यकता अति महत्वपूर्ण है।

   क्षात्रशक्ति या दंडशक्ति का ही आधुनिक रूप सशस्त्र सेनाएं हैं। विश्व के सभी महान विचारकों ने इनके महत्व को स्वीकारा है। भारत के प्रसिध्द अर्थशास्त्री कौटिल्य ने अपने ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' (7/1) में महाभारत का उध्दरण देते हुए कहा है, ''सेना के अभाव में राजकोष निश्चय ही समाप्त हो जायेगा। सेना की सहायता से धन वसूल किया जा सकता है। सेना यदि तत्पर रहे, तो वह मन्त्री के कार्य पूरे करवा सकती है।'' तथा ''यदि शासक को राज्य संचालन के लिए दूसरी अनेक विधाओं का ज्ञान न हो; पर यदि वह दंडविधान का ज्ञाता है, तो वह सफलतापूर्वक शासन चला सकता है।'' कौटिल्य से सहस्रों वर्ष पूर्व मनु ने सफल शासन में दंड की भूमिका की प्रंशसा की है।

स राजा पुरुषो दण्ड: स नेता शासिता च स:

चतर्णाभाश्रमाणं च धर्मस्य प्रतिभू: स्मृत: ॥1॥

दण्ड:शास्ति प्रजा: सर्वा दण्ड एवामिरक्षिति

दण्ड: सुप्तेषु जागर्ति दण्ड धर्म विदुर्बुधा:॥ 2॥

समीक्ष्य स धृत: सम्यक् सर्वा रजयति प्रजा:

असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वत:॥ 3॥

दुष्येयु सर्ववर्णाश्य भिद्येरन्सर्वसेतव:

सर्वलोकप्रकापश्य भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्॥ 4॥

यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्यरित पापहा

प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत्साधु पश्यति॥ 5॥

  अर्थात दंड ही राज्यपुरुष, न्याय का प्रचारकर्ता और सबका शासनकर्ता है। वही चार वर्ण और चार आश्रमों के धर्म का रक्षक है॥ 1॥ दंड ही प्रजा का शासनकर्ता और रक्षक है। जब सब सोते हैं, तब वह जागता है। उसके भय से दुष्ट लोग प्रजा की नींद में बाधा नहीं डाल सकते। इसलिए बुध्दिमान लोग दंड को ही धर्म कहते हैं॥ 2॥ जो दंड खूब सोच-विचार कर लागू किया जाता है, वह सबको आनंद देता है और जो बिना विचारे चलाया जाय, वह राजा का ही नाश कर देता है॥ 3॥ बिना दंड के सब वर्ण दूषित और मर्यादाएं छिन्न-भिन्न हो जाती हैं तथा लोग अनेक प्रकार के प्रकोपों के शिकार होते हैं॥ 4॥ जहां कृष्णवर्ण, रक्तनेत्र, भयंकर पुरुष जैसा पापों का नाश करने वाला दंड विचरता है, वहां प्रजाजन अपराधों से दूर भागते हैं; पर यह तभी संभव है, जब शासक विद्वान एवं विवेकशील हो॥ 5॥

  रामायण के अनुसार भरत चित्रकूट में राम से राजधर्म संबंधी लगभग 60 प्रश्न पूछते हैं (अयोध्याकांड, सर्ग : 100) उनमें दो प्रश्न दंड से संबंधित हैं। राम कहते हैं : हे भरत ! तुम राज्य में दंडविधान को चलाने वालों को भली प्रकार जांच परख कर ही नियुक्त करो; क्योंकि जो राजा धर्मानुसार प्रजा का पालन करता है, वह सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य पाता है।

  केवल भारतीय ही नहीं, तो विदेशी विचारकों ने भी अपने विचार इसी प्रकार प्रस्तुत किये हैं। प्लेटो ने अपने ग्रन्थ 'रिपब्लिक' (2/369) में संरक्षक श्रेणी अर्थात सेना द्वारा राज्य की रक्षा करने की आवश्यकता को पूर्णत: स्वीकार किया है। वह सैनिक को राज्य का अभिन्न और आवश्यक अंग मानता था। जेनोफोन ने यह कहकर कि मनुष्यों के बीच सदा युध्द होता रहता है, सेना और सैनिक की आवश्यकता पर बल दिया है।

  अरस्तू ने अपने विश्वप्रसिध्द ग्रन्थ 'पोलिटिक्स' में कहा है कि खाद्य पदार्थ उत्पादक वर्ग, यांत्रिक वर्ग, व्यापारिक वर्ग, कृषि दासों, योध्दा वर्ग, न्यायाधीशों, अधिकारी वर्ग और विचारक वर्ग द्वारा ही राज्य का निर्माण होता है। यदि देश को किसी का दास बनना स्वीकार नहीं है, तो योध्दा वर्ग भी अन्य वर्गों की तरह ही आवश्यक है। इतना ही नहीं तो उसने शरीर से अधिक महत्वपूर्ण आत्मा की तरह ही राज्य के अन्य अवयवों की अपेक्षा योध्दा वर्ग, न्यायाद्दीश और विचारक वर्ग को राज्य के लिए अधिक आवश्यक कहा है।

  मोर ने अपने ग्रन्थ 'यूटोपिया' में युध्द को गणतन्त्र के जीवन का सामान्य अंग मानते हुए इसके लिए सशस्त्र सेनाओं को राज्य व्यवस्था में विशिष्ट स्थान दिया है। इसी प्रकार बेकन भी अपने 'न्यू अटलांटिस' में युध्द को राष्ट्रीय गौरव का आवश्यक अंग मानते हुए ''बारूद और शस्त्रों के आविष्कारक भिक्षु'' की मूर्ति स्थापित करने वाले एक सैनिक राज्य का चित्र प्रस्तुत करता है।

  इतालवी विचारक मैकियावेली के अनुसार ''युध्द, इसके नियम और अनुशासन के अतिरिक्त किसी राजकुमार का अन्य उद्देश्य अथवा विचार नहीं होना चाहिए और अपने अध्ययन के लिए उसे इसके अतिरिक्त कोई अन्य विषय नहीं चुनना चाहिए। अपनी पुस्तक 'दि प्रिंस' में वह नये, पुराने अथवा मिश्रित सभी राज्यों का मुख्य आधार अच्छे नियम और शस्त्रों को बताता है।

  हाब्स अपनी पुस्तक 'लेवियाथन' में कहता है कि तलवार के बिना प्रसंविदाएं कोरे शब्दमात्र हैं, जो मनुष्य को बांधने में अशक्त हैं। इस प्रकार कौटिल्य और प्लेटो से लेकर आज तक के सभी विचारकों ने सशस्त्र सेनाओं को राज्यतन्त्र का आवश्यक अंग माना है।

  तो क्या यह मान लिया जाये कि ये सभी मूर्धन्य विचारक युध्दपिपासु और अशांतिप्रेमी थे; क्या उजड़े नगर, चीखते-चिल्लाते लोग, जलती फसलें, रक्त बहाती नदियां और लाशों पर विलाप करती महिलाओं को देखकर इन्हें संतुष्टि मिलती थी ? ऐसा कहना तो संभवत: इन विश्वप्रसिध्द समाजशास्त्रियों के साथ अन्याय होगा। फिर भी इन्होंने युध्द अौर सशस्त्र सेनाओं की तैयारी और महत्व पर इतना बल क्यों दिया है ?

  स्पष्ट है कि अपने अध्ययन, अनुभव और विचारशक्ति के कारण इन्हें यह साक्षात्कार हुआ कि विश्व-शांति के लिए दुष्ट शक्तियों के सामने सज्जन शक्तियों को भी संतुलन बनाकर चलना पड़ता है। अर्थात दुष्टों के साथ-साथ सज्जनों के पास भी उतनी ही नहीं, अपितु उनसे भी कहीं अधिक शक्ति होनी आवश्यक है। यह बात ठीक है कि वे उसे पहले प्रयोग न करें; पर बिना शक्ति और आधुनिक आयुधों के शांति की कल्पना निराधार है।

  त्रेतायुग के भगवान राम हों, या द्वापर के भगवान कृष्ण; या फिर कलियुग के चन्द्रगुप्त मौर्य, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, डा0 केशव बलिराम हेडगेवार जैसे युगपुरुष। सभी ने ब्रह्मशक्ति के साथ क्षात्रशक्ति के महत्व को भी पहचाना और इन दोनों की साधना व आराधना के बल पर अपने समय की दुष्ट शक्तियों को मात दी। शायद इसीलिए विश्व के सभी प्रसिध्द विचारकों और समाजशास्त्रियों ने शक्ति को ही शांति का प्रबल आधार बताया है।

- विजय कुमार, ( ूण्अपरंपचंजीण्इसवहेचवजण्बवउ)

   संकटमोचन आश्रम, रामकृष्णपुरम्/6, नई दिल्ली - 22

 

 

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Pubilsed on Dated: 2010-10-09 , Tme: 08:55 ist

Upload on Dated  : 2010-10-09,   Time: 08:58 ist

इनका दर्द भी समझें

 विजय कुमार 

मेरे पड़ोस में मियां फुल्लन धोबी और मियां झुल्लन भड़भूजे वर्षों से रहते हैं। लोग उन्हें फूला और झूला मियां कहते हैं। 1947 में तो वे पाकिस्तान नहीं गये; पर मंदिर विवाद ने उनके मन में भी दरार डाल दी। अब वे मिलते तो हैं; पर पहले जैसी बात नहीं रही। अब वे दोनों काफी बूढ़े हो गये हैं। फूला मियां की बेगम भी खुदा को प्यारी हो चुकी हैं। झूला मियां और उनकी बेगम में होड़ लगी है कि पहले कौन जाएगा ? खुदा खैर करे।
30 सितम्बर को सारे देश की तरह वे दोनों भी रेडियो से कान लगाये इस विवाद के निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे थे। निर्णय आते ही मुसलमानों के चेहरे पर मुर्दनी छा गयी, दूसरी ओर हिन्दू जय श्रीराम का उद्घोष करने लगे।
इस हलचल में रात बीत गयी। अगले दिन बाजार जाते समय वे दोनों मिल गये और इस निर्णय पर चर्चा करने लगे।
 

उन्हें सबसे अधिक कष्ट यह था कि न्यायाधीशों के अनुसार वह मस्जिद इस्लामी उसूलों के विरुद्ध बनी थी, अतः उसे मस्जिद नहीं कहा जा सकता। मियां फूला ने पूछा - क्यों भैया, तुम तो कई अखबार पढ़ते हो। ये बताओ कि जो इमारत मस्जिद थी ही नहीं, वहां पढ़ी गयी नमाज खुदा मानेगा या नहीं ?
- इस बारे में मैं क्या बताऊं चाचा; आपको किसी मौलाना से पूछना चाहिए।
- अरे खाक डालो उन मौलानाओं पर। उन्होंने तो हमारा जीना हराम कर दिया। वे सीना ठोक कर कहते थे कि बाबरी मस्जिद को दुनिया की कोई ताकत हिला नहीं सकती; पर वह तो कुछ घंटे में ही टूट गयी। फिर वे कहते थे कि हम पहले से बड़ी मस्जिद वहां बनाएंगे। इसके लिए हमने पेट काटकर चंदा भी दिया; पर अब तो न्यायालय ने उस मस्जिद को ही अवैध बता दिया।
- हां, यह ठीक है।
- कई साल पहले ईद पर न जाने कहां से कोई गीलानी-फीलानी आये थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि हमें अयोध्या-फैजाबाद में एक नया मक्का बनाना है। पूरी दुनिया के मुसलमान मक्का की तरफ मुंह करके नमाज पढ़ते हैं। यदि हम पांच में से एक वक्त की नमाज फैजाबाद की तरफ मुंह करके पढ़ें, तो हमारी इबादत जरूर कबूल होगी।
- अच्छा ?
- और क्या ? बीमारी के कारण अब मैं मस्जिद तो जाता नहीं; लेकिन घर पर ही रहते हुए मैंने पांचों नमाज फैजाबाद की तरफ मुंह करके पढ़ी, जिससे नया मक्का जल्दी बने; पर लाहौल विला कूवत...। सब नमाज बेकार हो गईं। या खुदा, अब मेरा क्या होगा ? कयामत वाले दिन मुझे तो जहन्नुम में भी जगह नहीं मिलेगी। इतना कह कर वे रोने लगे।
मैंने उनको शांत करने का प्रयास किया; पर उनका दर्द मुझसे भी सहा नहीं जा रहा था।
- मुझे वो मुकदमेबाज हाशिम पंसारी मिल जाए, तो..
- पंसारी नहीं, अंसारी। मैंने उनकी भूल सुधारी।
- अंसारी हो या पंसारी। अपने जूते से उसकी वह हजामत बनाऊंगा कि अगले जन्म में भी वह गंजा पैदा होगा। और उस गीलानी-फीलानी की तो दाढ़ी मैं जरूर नोचूंगा।
- चलो जो हुआ सो हुआ। अब बची जिंदगी में ठीक से नमाज पढ़ो, जिससे पुराने पाप कट जाएं।
मैं जल्दी में था, इसलिए चलने लगा; पर अब मियां झूला लिपट गये। उन्होंने अपना हिन्दी ज्ञान बघारते हुए कहा - भैया, एक लघु शंका मेरी भी है।
- उसे फिलहाल आप अपने मुंह में रखें; कहकर मैं चल दिया।
रास्ते भर मैं सोचता रहा कि इन मजहबी नेताओं ने मस्जिद का झूठा विवाद खड़ाकर अपनी जेब और पेट मोटे कर लिये। कइयों की झोपड़ियां महल बन गयीं। कई संसद और विधानसभा में पहुंच गये; पर झूला और फूला जैसे गरीबों ने उनका क्या बिगाड़ा था, जो उन्होंने बुढ़ापे में इनका दीन ईमान खराब करा दिया ?

 

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  Jammu & Kasmir

 Tags:Jammu & Kasmir, Huriyat, Khilafat Movment, Moh.ALI Jinnah

             फिर दाढ़ी में हाथ

                       विजय कुमार 

   जम्मू-कश्मीर में गत 20 सितम्बर को सांसदों का जो सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल गया था, उसके कुछ सदस्यों ने उन्हीं भूलों को दोहराया है, जिससे यह फोड़ा नासूर बना है। इनसे मिलने अनेक दलों और वर्गों के प्रतिनिधि आये थे; पर देशद्रोही नेताओं ने वहां आना उचित नहीं समझा। अच्छा तो यह होता कि इन्हें बिलकुल दुत्कार दिया जाता; पर कई सांसदों और उनके दलों के लिए देश से अधिक मुस्लिम वोटों का महत्व है। इसलिए माकपा नेता सीताराम येचुरी के नेतृत्व में कुछ सांसद अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी से मिलने उनके घर गये। भाकपा सांसद गुरुदास दासगुप्ता के साथ कुछ सांसद हुर्रियत नेता मीरवायज उमर फारुक से मिले और रामविलास पासवान जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता यासीन मलिक के घर गये। यह अच्छा ही हुआ कि भाजपा और कांग्रेस के सांसदों ने स्वयं को इस बेहूदी कवायद से दूर रखा।

  इन तीनों देशद्रोही नेताओं ने मीडिया का पूरा लाभ उठाया। सांसदों का सम्मान करने वालों से तो वार्ता कमरे में हुई; पर उनका अपमान करने वालों से मीडिया के सामने। स्पष्ट है कि इस मामले में भारत सरकार उल्लू ही बनी है। यद्यपि 100 करोड़ रु0 की सहायता और आठ सूत्री कार्यक्रमों की घोषणा कर अब शासन अपनी पीठ थपथपा रहा है; पर यह कवायद अंतत: विफल ही सिध्द होगी।  हो सकता है कि बाजार और विद्यालयों के खुलने तथा कर्फ्यू के हटने से देशवासी समस्या को समाप्त मान लें; पर यह कुछ दिन की शांति है। पत्थरबाजों की रिहाई, सुरक्षाकर्मियों पर हमला करते हुए उनकी गोली से मरने वालों के परिजनों को पांच लाख रु0 की सहायता तथा पत्थर, डंडे और गाली खाकर भी चुप रहने वाले, इलाज करा रहे सुरक्षाकर्मियों को आठ-दस हजार रु0 का पुरस्कार यह बताता है कि सरकार मुस्लिम तुष्टीकरण की उसी नीति पर चल रही है, जिसने देश की सदा हानि की है।

   स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास के अनुसार देश विभाजन का अपराधी मोहम्मद अली जिन्ना पहले देशभक्त ही था। उसने 1925 में सेंट्रल असेंबली में कहा था कि मैं भारतीय हूं, पहले भी, बाद में भी और अंत में भी। वह मुसलमानों का गोखले जैसा नरमपंथी नेता बनना चाहता था। उसने खिलाफत आंदोलन को गांधी का पाखंड कहा। उसने मुसलमानों के अलग मतदान और निर्वाचन क्षेत्रों का विरोध किया। उसने राजनीति में मजहबी मिलावट के गांधी, मोहम्मद अली और आगा खान के प्रयासों का विरोध किया। उसने तिलक के अपमान पर वायसराय विलिंगटन का मुंबई में रहना दूभर कर दिया। उसने 'रंगीला रसूल' के प्रकाशक महाशय राजपाल के हत्यारे अब्दुल कयूम की फांसी का समर्थन किया तथा लाहौर के शहीदगंज गुरुद्वारे के विवाद में सिखों की भरपूर सहायता की। 1933 में उसने लंदन के रिट्ज होटल में पाकिस्तान शब्द के निर्माता चौधरी रहमत अली की हंसी उड़ाकर उसके भोज का बहिष्कार किया तथा कट्टरवादी मुल्लाओं को 'कातिल ए आजम' और 'काफिर ए आजम' कहा।

   1934 में उसने मुंबई के चुनाव में साफ कहा था कि मैं भारतीय पहले हूं, मुसलमान बाद में। जलियांवाला बाग कांड के बाद वह असेम्बली में गांधी और नेहरू से अधिक प्रखरता से बोला था। रोलेट एक्ट के विरोध में उसकी भूमिका से प्रभावित होकर गांधी ने उसे कायदे आजम (महान नेता) कहा और मुंबई में जिन्ना हाल बनवाया, जिसमें मुंबई कांग्रेस का मुख्यालय है; पर यही जिन्ना देशद्रोही कैसे बना, इसकी कहानी भी बड़ी रोचक है।इसके लिए भारत के मुसलमान, गांधी जी और कांग्रेस की मानसिकता पर विचार करना होगा। मुसलमानों ने पांचों समय के नमाजी मौलाना आजाद के बदले अलगाव की भाषा बोलने वाले मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली को सदा अपना नेता माना। कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में उद्धाटन के समय हुए वन्दे मातरम् पर अध्यक्षता कर रहे मौहम्मद अली मंच से नीचे उतर गये थे। उनकी इस बदतमीजी को गांधी और कांग्रेस ने बर्दाश्त किया। इससे जिन्ना समझ गया कि यदि मुसलमानों का नेता बनना है, तो अलगाव की भाषा ही बोलनी होगी। उसने ऐसा किया और फिर वह मुसलमानों का एकछत्र नेता बन गया।

   यह भी सत्य है कि अंग्रेजों ने षडयन्त्रपूर्वक जिन्ना को इस मार्ग पर लगाया, चूंकि वे गांधी के विरुध्द किसी को अपने पक्ष में खड़ा करना चाहते थे। नमाज न जानने वाला, गाय और सुअर का मांस खाने तथा दारू पीने वाला जिन्ना उनका सहज मित्र बन गया। अंग्रेजों ने उसके माध्यम से शासन और कांग्रेस के सामने मांगों का पुलिंदा रखवाना शुरू किया। शासन को उसकी मांग मानने में तो कोई आपत्तिा नहीं थी, चूंकि पर्दे के पीछे वे ही तो यह करा रहे थे; पर आश्चर्य तो तब हुआ, जब गांधी जी भी उनके आगे झुकते चले गये।1942 के 'भारत छोड़ो' आंदोलन की विफलता और मुसलमानों के उसमें असहयोग से अधिकांश कांग्रेसियों का मोह उससे भंग हो गया; पर गांधी जी उस सांप रूपी रस्सी को थामे रहे। मई 1944 में उन्होंने जेल से मुक्त होकर जिन्ना को एक पत्र लिखा, जिसमें उसे भाई कहकर उससे भेंट की अभिलाषा व्यक्त की। 

   इस भेंट के लिए मुस्लिम लीग की स्वीकृति लेकर जिन्ना ने शर्त रखी कि वार्ता के लिए गांधी को मेरे घर आना होगा। वहां 9 से 27 सितम्बर तक दोनों की असफल वार्ता हुई। जिन्ना इसके द्वारा गांधी, कांग्रेस और हिन्दुओं को अपमानित करना चाहता था, और वह इसमें पूरी तरह सफल रहा।अब क्या था; मुसलमानों ने गांधी को अपमानित करने वाले को अपना निर्विवाद नेता मान लिया। अनेक देशभक्त नेताओं ने इस वार्ता का विरोध किया था; पर गांधी जी की आंखें नहीं खुलीं। देसाई-लियाकत समझौते और वैवल योजना के रूप में दो और असफल प्रयास हुए। पत्रकार दुर्गादास के प्रश्न के उत्तार में शातिर जिन्ना ने हंसते हुए कहा - क्या मैं मूर्ख हूं, जो इसे मान लूं। मुझे तो थाल में सजा कर पाकिस्तान दिया जा रहा है। स्पष्ट है कि जिन्ना की निगाह अपने अंतिम लक्ष्य पाकिस्तान पर थी। इतिहास कितना भी कटु हो; पर उसे नकारा नहीं जा सकता। जो भूल गांधी जी ने की, क्या वही भूल उन सांसदों ने नहीं की, जो इन देशद्रोहियों के घर जा पहुंचे ?

  इसी से मिलती-जुलती, पर इसका दूसरा पक्ष दिखाने वाली घटना भी भारत के इतिहास में उपलब्ध है। 947 में देश स्वाधीन होने के बाद जो दो-चार रजवाड़े भारत में विलय पर मुंह तिरछा कर रहे थे, उनमें से एक हैदराबाद का निजाम भी था। वह पाकिस्तान में मिलना चाहता था, यद्यपि वहां की 88 प्रतिशत प्रजा हिन्दू थी। नेहरू जी उसे समझाने के लिए गये; पर बीमारी का बहाना बनाकर वह मिलने नहीं आया। जब यह बात सरदार पटेल को पता लगी, तो वे बौखला उठे। उन्होंने कहा कि यह नेहरू का नहीं, देश का अपमान है। अब वे स्वयं हैदराबाद गये और निजाम को बुलाया। वहां से फिर वही उत्तार आया। इस पर पटेल ने कहा कि उसे बताओ कि भारत के उपप्रधानमंत्री आये हैं। यदि वह बहुत बीमार है, तो स्टे्रचर पर आए। इसका परिणाम यह हुआ कि थोड़ी ही देर में धूर्त निजाम भीगी बिल्ली बना, हाथ जोड़ता हुआ वहां आ गया। फिर सरदार पटेल ने उस रियासत को भारत में कैसे मिलाया, यह भी इतिहास के पृष्ठों पर लिखा है।

  यह दो घटनाएं बताती हैं कि देशद्रोहियों से कैसा व्यवहार होना चाहिए ? आज हमें गांधी या नेहरू जैसे दाढ़ी सहलाने वाले नहीं, पटेल जैसे दाढ़ी नोचने वाले हाथ चाहिए। दुर्भाग्यवश वर्तमान शासन तंत्र इसमें बिल्कुल नाकारा सिध्द हुआ है। 

(विजय कुमार, संकटमोचन आश्रम, रामकृष्णपुरम्, सेक्टर 6, नई दिल्ली - 110022) 

 

 

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अब हिन्दी को बांटने का षडयन्त्र 

विजय कुमार 

मातृभाषा हिन्दी 

सितम्बर हिन्दी के वार्षिक श्राध्द का महीना है। हर संस्था और संस्थान इस महीने में हिन्दी दिवस, सप्ताह या पखवाड़ा मनाते हैं और इसके लिए मिले बजट को खा पी डालते हैं। इस मौसम में कवियों, लेखकों व साहित्यकारों को मंच मिलते हैं और कुछ को लिफाफे भी। इसलिए सब इस दिन की प्रतीक्षा करते हैं और अपने हिस्से का कर्मकांड पूरा कर फिर साल भर के लिए सो जाते हैं।

    पर हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) के कर्मकांड के साथ ही कुछ विषयों पर चिंतन भी आवश्यक है। देश में प्राय: भाषा और बोली को लेकर बहस चलती रहती है। कुछ विद्वानों का मत है कि भोजपुरी, बुंदेलखंडी, मैथिली, बज्जिका, मगही, अंगिका, संथाली, अवधी, ब्रज, गढ़वाली, कुमाऊंनी, हिमाचली, डोगरी, हरियाणवी, उर्दू, मारवाड़ी, राजस्थानी, मेवाती, मालवी, छत्ताीसगढ़ी आदि हिन्दी से अलग भाषाएं हैं। इसलिए इन्हें भी भारतीय संविधान में स्थान मिलना चाहिए। इसके लिए वे तरह-तरह के तर्क और कुतर्क देते हैं। भाषा का एक सीधा सा विज्ञान है। बिना अलग व्याकरण के किसी भाषा का अस्तित्व नहीं माना जा सकता। उदाहरण के लिए 'मैं जा रहा हूं' का उपरिलिखित बोलियों में अनुवाद करें। एकदम ध्यान में आएगा कि उच्चारण भेद को यदि छोड़ दें, तो प्राय: इसका अनुवाद असंभव है। दूसरी ओर अंग्रेजी में इसका अनुवाद करें, तो प् ंउ हवपदहण् तुरन्त ध्यान में आता है। यही स्थिति मराठी, गुजराती, बंगला, कन्नड़ आदि की है। इसलिए अनुवाद की कसौटी पर किसी भी भाषा और बोली को आसानी से कसा जा सकता है।

    लेकिन इसके बाद भी अनेक विद्वान बोलियों को भाषा बताने और बनाने पर तुले हैं। कृपया वे बताएं कि तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस और सूरदास की रचनाओं को को हिन्दी की मानेंगे या नहीं ? यदि इन्हें हिन्दी की बजाय अवधी और ब्रज की मान लें, तो फिर हिन्दी में बचेगा क्या ? ऐसे ही हजारों नये-पुराने भक्त कवियों, लेखकों और साहित्यकारों की रचनाएं हैं। यह सब एक षडयंत्र के अन्तर्गत हो रहा है, जिसे समझना आवश्यक है।यह षडयंत्र भारत में अंग्रेजों द्वारा शुरू किया गया। इसे स्वतंत्रता के बाद कांग्रेसी सरकारों ने पुष्ट किया और अब समाचार एवं साहित्य जगत में जड़ जमाए वामपंथी इसे बढ़ा रहे हैं। अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि भारत को पराधीन बनाये रखने के लिए यहां के हिन्दू समाज की आंतरिक एकता को बल प्रदान करने वाले हर प्रतीक को नष्ट करना होगा। अत: उन्होंने हिन्दू समाज में बाहर से दिखाई देने वाली भाषा, बोली, परम्परा, पूजा-पध्दति, रहन-सहन, खानपान आदि भिन्नताओं को उभारा। फिर इसके आधार पर उन्होंने हिन्दुओं को अनेक वर्गों में बांट दिया।

   इस काम में उनकी चौथी सेना अर्थात चर्च ने भरपूर सहयोग दिया। उन्होंने सेवा कार्यों के नाम पर जो विद्यालय खोले, उसमें तथा अन्य अंग्रेजी विद्यालयों में ऐसे लोग निर्मित हुए, जो लार्ड मेकाले के शब्दों में 'तन से हिन्दू पर मन से अंग्रेज' थे। इन्होंने सर्वप्रथम भारत के हिन्दू और मुसलमानों को बांटा। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में दोनों ने मिलकर संघर्ष किया था। इसलिए इनके बीच गोहत्या से लेकर श्रीरामजन्मभूमि जैसे इतने विवाद उत्पन्न किये कि उसके कारण 1947 में देश का विभाजन हो गया। इस प्रकार उनका पहला षडयन्त्र (हिन्दुस्थान का बंटवारा) सफल हुआ।1947 में अंग्रेज तो चले गये; पर वे नेहरू के रूप में अपनी औलाद यहां छोड़ गये। नेहरू स्वयं को गर्व से अंतिम ब्रिटिश शासक कहते भी थे। उन्होंने इस षडयन्त्र को आगे बढ़ाते हुए हिन्दुओं को ही बांट दिया। हिन्दुओं के हजारों मत, सम्प्रदाय, पंथ आदि को कहा गया कि यदि वे स्वयं को अलग घोषित करेंगे, तो उन्हें अल्पसंख्यक होने का लाभ मिलेगा। इस भ्रम में हिन्दू समाज की खड्ग भुजा कहलाने वाले खालसा सिख और फिर जैन और बौध्द मत के लोग भी फंस गये। यह प्रक्रिया अंग्रेज ही शुरू कर गये थे। हिन्दू व सिखों को बांटने के लिए मि0 मैकालिफ सिंह और उत्तार-दक्षिण के बीच भेद पैदा करने में मि0 किलमैन और मि0 डेविडसन की भूमिका इतिहास में दर्ज है। ये तीनों आई.सी.एस अधिकारी थे।

  इसके बाद उन्होेंने वनवासियों को अलग किया। उन्हें समझाया कि तुम वायु, आकाश, सूर्य, चंद्रमा, सांप, पेड़, नदी .. अर्थात प्रकृति को पूजते हो, जबकि हिन्दू मूर्तिपूजक है। इसलिए तुम्हारा धर्म हिन्दू नहीं है। भोले वनवासी इस चक्कर में आ गये। फिर हिन्दू समाज के उस वीर वर्ग को फुसलाया, जिसे पराजित होने तथा मुसलमान न बनने के कारण कुछ निकृष्ट काम करने को बाध्य किया गया था। या जो परम्परागत रूप से श्रम आधारित काम करते थे। उन्हें अनुसूचित जाति कहा गया। इसी प्रकार क्षत्रियों के एक बड़े वर्ग को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओ.बी.सी) नाम दिया गया। इस प्रकार हिन्दू समाज कितने टुकड़ों में बंट सकता है, इस प्रयास में मेकाले से लेकर नेहरू और विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर वामपंथी बुध्दिजीवी तक लगे हैं। हिन्दुस्थान और हिन्दुओं को बांटने के बाद अब उनकी दृष्टि हिन्दी पर है। व्यापक अर्थ में संस्कृत मां के गर्भ से जन्मी और भारत में कहीं भी विकसित हुई हर भाषा हिन्दी ही है। ऐसी हर भाषा राष्ट्रभाषा है, चाहे उसका नाम तमिल, तेलुगू, पंजाबी या मराठी कुछ भी हो। यद्यपि रूढ़ अर्थ में इसका अर्थ उत्तार भारत में बोली और पूरे देश में समझी जाने वाली भाषा है। इसलिए राष्ट्रभाषा के साथ ही यह सम्पर्क भाषा भी है। जैसे गरम रोटी को एक बार में ही खाना संभव नहीं है। इसलिए उसके कई टुकड़े किये जाते हैं, फिर उसे ठंडाकर धीरे-धीरे खाते हैं। इसी तरह अब बोलियों को भाषा घोषित कर हिन्दी को तोड़ने का षडयन्त्र चल रहा है।

  अंग्रेजों के मानसपुत्रों और देशद्रोही वामपंथियों के उद्देश्य तो स्पष्ट हैं; पर दुर्भाग्य से हिन्दी के अनेक साहित्यकार भी इस षडयन्त्र के मोहरे बन रहे हैं। उनका लालच केवल इतना है कि यदि इन बोलियों को भाषा मान लिया गया, तो फिर इनके अलग संस्थान बनेंगे। इससे सत्ताा के निकटस्थ कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों को महत्वपूर्ण कुर्सियां, लालबत्ताी वाली गाड़ी, वेतन, भत्तो आदि मिलेंगे। कुछ लेखकों को पुरस्कार और मान-सम्मान मिल जाएंगे, कुछ को अपनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए शासकीय सहायता; पर वे यह भूलते हैं कि आज तो उन्हें हिन्दी का साहित्यकार मान कर पूरे देश में सम्मान मिलता है; पर तब वे कुछ जिलों में बोली जाने वाली, निजी व्याकरण्ा से रहित एक बोली (या भाषा) के साहित्यकार रह जाएंगे। साहित्य अकादमी और दिल्ली में जमे उसके पुरोधा भी इस विवाद को बढ़ाने में कम दोषी नहीं हैं।भाषा और बोली के इस विवाद से अनेक राजनेता भी लाभ उठाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि भारत में अनेक राज्यों का निर्माण भाषाई आधार पर हुआ है। यदि आठ-दस जिलों में बोली जाने वाली हमारी बोली को भाषा मान लिया गया, तो इस आधार पर अलग राज्य की मांग और हिंसक आंदोलन होंगे। आजकल गठबंधन राजनीति और दुर्बल केन्द्रीय सरकारों का युग है। ऐसे में हो सकता है कभी केन्द्र सरकार ऐसे संकट में फंस जाए कि उसे अलग राज्य की मांग माननी पडे। यदि ऐसा हो गया, तो फिर अलग सरकार, मंत्री, लालबत्ताी और न जाने क्या-क्या ? एक बार मंत्री बने तो फिर सात पीढ़ियों का प्रबंध करने में कोई देर नहीं लगती।

   बोलियों को भाषा बनाने के षडयन्त्र में कुछ लोग तात्कालिक स्वार्थ के लिए सक्रिय हैं, जबकि राष्ट्रविरोधी हिन्दुस्थान और हिन्दू के बाद अब हिन्दी को टुकड़े-टुकड़े करना चाहते हैं, जिससे उसे ठंडा कर पूरी तरह खाया जा सके। विश्व की कोई समृध्द भाषा ऐसी नहीं है, जिसमें सैकड़ों उपभाषाएं, बोलियां या उपबोलियां न हों। हिन्दी के साथ हो रहे इस षडयन्त्र को देखकर अन्य भारतीय भाषाओं के विद्वानों को खुलकर इसका विरोध करना चाहिए। यदि आज वे चुप रहे, तो हिन्दी की समाप्ति के बाद फिर उन्हीं की बारी है। देश में मुसलमान और अंग्रेजों के आने पर हमारे राजाओं ने यही तो किया था। जब उनके पड़ोसी राज्य को हड़पा गया, तो वे यह सोचकर चुप रहे कि इससे उन्हें क्या फर्क पड़ता है; पर जब उनकी गर्दन दबोची गयी, तो वे बस टुकुर-टुकुर ताकते ही रह गये।   

  हिन्दी संस्थानों के मुखियाओं को भी अपना हृदय विशाल करना होगा। इनके द्वारा प्रदत्ता पुरस्कारों की सूची देखकर एकदम ध्यान में आता है कि अधिकांश पुरस्कार राजधानी या दो चार बड़े शहरों के कुछ खास साहित्यकारों में बंट जाते हैं। जिस दल की प्रदेश में सत्ताा हो, उससे सम्बन्धित साहित्यकार चयन समिति में होते हैं और वे अपने निकटस्थ लेखकों को सम्मानित कर देते हैं। इससे पुरस्कारों की गरिमा तो गिर ही रही है, साहित्य में राजनीति भी प्रवेश कर रही है। जो लेखक इस उठापटक से दूर रहते हैं, उनके मन में असंतोष का जन्म होता है, जो कभी-कभी बोलियों की अस्मिता के नाम पर भी प्रकट हो उठता है। इसलिए भाषा संस्थानों को राजनीति से पूरी तरह मुक्त रखकर प्रमुख बोलियों के साहित्य के लिए भी अच्छी राशि वाले निजी व शासकीय पुरस्कार स्थापित होने आवश्यक हैं।भाषा और बोली में चोली-दामन का साथ है। भारत जैसे विविधता वाले देश में 'तीन कोस पे पानी और चार कोस पे बानी' बदलने की बात हमारे पूर्वजों ने ठीक ही कही है। जैसे जल से कमल और कमल से जल की शोभा होती है, इसी प्रकार हर बोली अपनी मूल भाषा के सौंदर्य में अभिवृध्दि ही करती है। बोली रूपी जड़ों से कटकर कोई भाषा जीवित नहीं रह सकती। दुर्भाग्य से हिन्दी को उसकी जड़ों से ही काटने का प्रयास हो रहा है। इस षडयन्त्र को समझना और हर स्तर पर उसका विरोध आवश्यक है। बिल्लियों के झगड़े में बंदर द्वारा लाभ उठाने की कहानी प्रसिध्द है। भाषा और बोली के इस विवाद में ऐसा ही लाभ अंग्रेजी उठा रही है।                                               विजय कुमार, संकटमोचन, रामकृष्णपुरम् - 6, नई दिल्ली - 22 

e-mail: vijai_juneja@yahoo.com

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विजय कुमार 

 

लेखक, विश्वा संवाद केन्द्र देहरादून के निदेशक हैंं

Vijai Kumar

Writer, Columnist & Auther,

 

 

 

 

 
   
 
 
                               
 
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