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  भगवान विश्कर्मा जिन्होंने संसार को शिल्पकलासे अलंकृत किया  
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  भगवान विश्कर्मा जिन्होंने संसार को शिल्पकलासे अलंकृत किया
  संकलन सचिन धीमान
Tags: Vishwakarma Jayanti
Publised on : 2011:09:17       Time 10:03                                       Update on  : 2011:09:17       Time 10:03

भगवान विश्कर्मा  विश्व के रचयिता, जन-जन की जीविका की कला के प्रणेता, पालनकर्ता एवं जीवनदाता हैं। उन्होंने अपनी शिल्पकला से संसार को अलंकृत किया है। वे देश, काल, जाति और धर्म की सीमाओं से परे, सम्पूर्ण मानव जाति के हितकारी एवं लोकपूज्य है। आज विश्व विकास की जिन बुलंदियों को छू रहा है, उसके पीछे भगवान विश्वकर्मा जी की कला कार्य कर रही है।
विश्वकर्मा पूजा सृष्टि के आदि से अब तक भगवान विश्वकर्मा के अनेक अवतार हुए है और उन्होंने समय समय पर लौकिक लीलाएं की है। अत: भक्तगण उनकी लोक लीलाओं को याद रखने के लिए अलग-अलग तिथियों में उनका पूजनोत्सव मनाते चले आ रहे है। औद्योगिक एवं तकनीकि प्रतिष्ठानों एवं कार्याें से जुड़े भगवान विश्वकर्मा के भक्तगण उनकी दैनिक पूजा अर्चना तो करते ही हैं, किन्तु विश्वकर्मा पूजा कन्या सांति-17 सितम्बर-सृष्टि रचना दिवस―, विश्वकर्मा दिवस कार्तिक शुक्लपक्ष की प्रतिपदा-आयुध पूजन दिवस― तथा विश्वकर्मा जयंती माघ शुक्लपक्ष की त्रयोदशी-विश्वकर्मा जी का जन्म दिवस― के शुभ अवसर पर यह पूजनोत्सव विशेष धूमधाम से मनाते है। पूजनोत्सव के दिन भगवान विश्वकर्मा के साधक एवं आराधक अपनी मशीनों, उपकरणों और औजरों आदि की साफ सफाई करके विधि विधान से उनकी पूजा अर्चना एवं हवन आदि करते है तथा आत्मकल्याण व लोककल्याण के लिए उनसे प्रार्थना करते है। भगवान विश्वकर्मा इस दिन भक्तों द्वारा मांगी गयी मुराद को भी पूरा करते है। जगद्वंदनीय भगवान विश्वकर्मा
संसार में जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है वह सब भगवान विश्वकर्मा की देन है। हम अन्य किसी देवी देवता चाहे एक क्षण के लिए भूल भी जायें किन्तु भगवान विश्वकर्मा की कला संसार के कण-कण में समाई होने के कारण वह हमें हर पल याद आता रहा है। कोई भी दृष्टा उस स्त्रष्टा की कला को अनदेखा कैसे कर सकता है।
पुराणकार व्यास जी ने महान शिल्प-प्रवर्तक भगवान विश्वकर्मा की वंदना की है-
दिवि भुव्यंतरिक्षे वा पाताले वापि सर्वश:।
यत्किंचितच्छिल्पिनां शिल्प तत्प्रवर्तकते नम:।

अर्थात आकाश, भूमि, अंतरिक्ष और पाताल में जो कुछ भी शिल्पियों का शिल्प दिखाई दे रहा है, उसके प्रवर्तक विश्वकर्मा को नमस्कार है।
महाभारत, शांतिपर्व में कहा गया है-
विश्वकर्मन् नमस्तेडस्तु विश्वात्मन् विश्वसंभव।
अपवर्गोञ्सि भूतानां पंचाना परत: स्थित:॥

अर्थात् हे विश्वकर्मा! यह सम्पूर्ण विश्वकर्मा आपकी रचना है, आप समस्त विश्व के आत्मा ओर उत्पत्ति स्थान है तथा पांचों भूतों से अतीत होने के कारण नित्यमुक्त है। आपको मेरा नमस्कार है।
वस्तुत: ऐसे महान देवता की पूजा करना, उत्सव मनाना और उनके संदेश को जन-जन तक पहुंचाना मनुष्य का सच्चा र्ध्म है।
वाराहपुराण का कथन है कि विवाह, यज्ञ, गृह-प्रवेश आदि समस्त शुभ कार्यों में अनिवार्य रूप से भगवान विश्वकर्मा का पूजन करना चाहिए।
विवाहादिषु यज्ञेषु गृहारामविधायके।
सर्वकर्मसु संपूज्यो विश्वकर्मा इति श्रुतम्॥

स्पष्ट है कि भगवान विश्वकर्मा लोकहितकारी है तथा उनकी पूजा जनकल्याणकारी है। अत: प्रत्येक सृष्टिकर्ता, शिल्पकलाधिपति, तकनीक और विज्ञान के जनक प्रभु विश्वकर्मा की पूजा, आराधना व उपासना अपनी व अपने राष्ट्र की उन्नति के लिए अवश्य करें।

आदि वैज्ञानिक विश्वकर्मा
कम्प्यूटराइज इस वैज्ञानिक युग में जहां सभी चीजें कम्प्यूटर द्वारा संचालित है। यह सब देन आज किस की है किसी ओर की नहीं बल्कि भगवान श्री विश्वकर्मा जी की ही देन है। जिन्हें आज संसार तो भूलता ही जा रहा है साथ ही साथ हमारा समाज भी भूलता जा रहा है। आज वैज्ञानिक आकाश पर पहुंच गया है और वहां पर रहने के लिए भी अब प्लाट खरीदने लगे है। यह सब किसके कारण संभव हो पाया है। यह किसी ओर के कारण नहीं बल्कि भगवान श्री विश्वकर्मा जी के कारण ही संभव हो पाया है। आज जो खगोल शास्त्री आकाश में नक्षत्रों की खोज कर रहस्यों का पता लगा रहे है। यह भगवान विश्वकर्मा जी के वंशीजों द्वारा तैयार किये गये वैज्ञानिक आविष्कारों यंत्रों और आयुधें की खोजकर समाज में नव चेतना पैदा करने के लिए सबसे पहले अन्तरिक्ष जाने के लिए रॉकेट का निर्माण किया वह ओर कोई नहीं बल्कि एक विश्वकर्मा ही थे और सबसे पहले अपने रॉकेट का निर्माण कर आंतरिक्ष में पहुंचे थे जिसके बाद आंतरिक्ष में जाने का रास्ता विश्व को मिला। आज पूरा विश्व व समाज ही नहीं बल्कि देवी-देवता भी भगवान श्री विश्वकर्मा जी के ऋणी है। क्योंकि महर्षि विश्वकर्मा जी ने ही जहां देवी देवताओं को विभिन्न यंत्र दिये वहीं शिव पार्वती के विवाह के लिए एक ऐसा मंडप तथा वेदी बनायी थी जो अनेक आश्चर्यो से युक्त थी। स्थल को देखकर जल का तथा जल को देखकर स्थल का का भ्रम होता था। देव प्रतिमाएं बिल्कुल चेतना देवों के तुल्य थी। कृत्रिम शेर, हिरण, सारस का जोडा, नृत्य करते मोर, धनुर्धरी द्वारपाल तथा शिव परिवार सभी विराजमान थे। जब नारद जी मंडप में पहुंचे तो वहां पर बनी देव मूर्तियों को देखकर वह आर्श्चयचकित रह गये और सोचने लगे कि जिन देवगणों को मैं देवलो में अभी भगवान श्री विष्णु के पास छोडकर आया हूं वह मेरे से पहले यहां कैसे पहुंच गये और जब उन्होंने वहां पर बनी अपनी प्रतिमा को देखा तो उन्हें वास्विता का ज्ञान हुआ। इतना ही नहीं भगवान श्री विश्वकर्मा जी ने अलकापुरी, शिवपुरी, अमरावती, द्वारकापुरी, लंकापुरी आदि का निर्माण किया जो अद्वितीय थे। भगवान श्री विश्वकर्मा जी ने पानी पर तैरते हुए तथा हवा में झूलते हुए भवनों का भी निर्माण किया। इन्होंने अणुशक्ति से सूक्ष्म शक्तियों जैसे अंशुवाहा मणिवाहा आदि अनेक प्रकार के यंत्राों व अस्त्रों व शस्त्रों का निर्माण किया। जिनके द्वारा दस योजन तक पृथ्वी गर्भ में धातुओं और खनिज पदार्थों को देखा जा सकता था। भगवान श्री विश्वकर्मा जी ने भगवान विष्णु को च, भगवान शिव को čानुष व त्रिशुल, भगवान इन्द्र को ब्रज, अग्नि को परसा, धर्मराज को दण्ड़ तथा भगवान श्री कृष्ण जी को सुदर्शन च दिया साथ ही साथ इन्होंने गरूड विमान, पुष्पक विमान और कामांग विमान के साथ विčवंसक विमान का भी निर्माण किया जिसमें युध्द सामग्री भरी जाती थी और आसमान में पहुंचकर अदृश्य हो जाता था। महर्षि विश्वकर्मा जी द्वारा भगवान श्री राम को दिये गये यंत्र से ही राम ने अहिल्या नामक बंजर भूमि को खोदकर उपजाऊ बनाया जिससे यह कथा प्रचलित हुई कि राम ने अहिल्या का उधार किया। महर्षि विश्वकर्मा जी के वंशज महर्षि भारद्वाज और महर्षि अगस्त्य के आश्रम में भूगर्भ में अनुसंधन शालयें थी जिनमें वैज्ञानिक खोज होती थी। लंका पर चढाई के समय जब भगवान श्री राम की वानर सेना को समुद्र पार करने के लिए कोई रास्ता नहीं मिला तो भगवान श्री विश्वकर्मा जी के दोनों पुत्रों नल-नील ने समुद्र का 10 योजन चौडा तथा 100 योजन लम्बा पुल मात्र पांच दिन में तैयार कर लंका में जाने के लिए श्रीराम जी की सेना को पुल दिया था। लक्ष्मण रेखा परमाणुओं के मिश्रण से बनी थी यह ऐसी रेखा थी कि जिसके अंदर रहने वाला सुरक्षित था क्योंकि उसमें अंदर आने वाली वस्तु को भस्म करने की शक्ति थी। उसम समय भी राम और रावण के पास पुष्पक विमान थे जो विश्वकर्मा जी के द्वारा ही तैयार किये गये थे। लक्ष्मण मूर्छा के समय हनुमान पुष्पक विमान में बैठकर समुद्र पार करके संजीवन बूंटी लाये थे यह पुष्पक विमान भी विश्वकर्मा जी का ही बनाया हुआ था। महर्षि विश्वकर्मा जी ने सोमना कृतिक नामक एक यंत्रा बनाया था जो वायु मंडल में जल के परमाणुओं को एकत्रित करके जल और अग्नि को सोखने तथा पैदा करने की शक्ति रखता था।
महाभारत युध्द के समय जब महारथी भीष्म बाणों की शैयया पर लेटे हुए थे और उन्हें पानी की प्यास लगी तो इनकी प्यास उर्जन के गाण्डीव से ही बुझायी। क्योंकि गाण्डीव के द्वारा उन्होंने तीर चलाकर ऐसा बाण पृथ्वी में मारा कि जल की धारा फूट पडी जिसकी धार उनके मुंह में गिरी।
सर्व प्रथम इस संसार की रचना करने वाले विराट विश्वकर्मा है तथा विज्ञान ओर शिल्प के कर्णधार महर्षि विश्वकर्मा है जो कला कौशल, विज्ञान, ज्योतिष, भूगोल, चिकित्सा और संगीत के प्रवर्तक हुए। विश्वकर्मा जी के बारे में अनेक भ्रान्तियां है क्योंकि विश्वकर्मा जी चारों युगों में हुए है। ईश्वर ने चारों वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अर्थवेद का ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में मश: चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को दिया। अर्थववेद के प्रणेता महर्षि अंगिरा के पुत्र आप्त्य, आप्त्य के भुवन और भुवन के पुत्रा महर्षि विश्वकर्मा शिल्प के प्रवर्तक हुए है। ऐसा भी वर्णन आता है कि प्रजापति के आठवे पुत्र बसु प्रभास हुए जिनके शिल्पाचार्य महर्षि विश्वकर्मा हुए। इनकी माता योगसवता ब्रहस्तरी―नाना अंगिरा, नानी अतिरूपा तथा मामा बृहस्पति हुए तथा हरिण्यकश्यप की पौत्री प्र''ादी विश्वकर्मा जी की पत्नि थी। महर्षि विश्वकर्मा जी के पांच पुत्र थे जो मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञये थे। ये पांचों देवताओं के पूज्य थे अत: इन्हें महर्षि की उपाधि प्राप्त थी। जब भी कभी देवताओं पर संकट आता था तो देवता भगवान विश्वकर्मा जी की पूजा अर्चना की जिससे विश्वकर्मा जी ने उनके संकटों को दूर करने के लिए उनकी रक्षा की। महर्षि मनु लोह कला में महान थे। इनका विवाह महर्षि अंगिरा की पुत्री कांचना से हुआ था। ये ऋग्वेद के ज्ञाता थे और इन्होंने मनुसूत्र, मनुमंत्र तथा मनुशिल्प आदि ग्रन्थों की रचना की।
महर्षि मय काष्ट कला में निपुण थे। ये यजुर्वेद के ज्ञाता थे तथा इन्होंने मयतंत्र, मयदीपिका ओर मय कला आदि ग्रन्थों की रचना की थी। इनका विवाह मुनि पाराशर की पुत्री सुलोचना žसौम्या― से हुआ था। ये ज्योतिष, गणित, खगोल और आयुर्वेद के भी प्रकांड पंडित थे।
महर्षि त्वष्टा तांबा और कांसा के कार्य करने में निपुण थे और अस्त्रों-शस्त्रों का निर्माण करने में बहुत ही चतुर थे। ये अगस्त ऋषि के आश्रम में रहकर अनुसंधान शाला में नयी नयी खोजे किया करते थे। एक बार ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर इन्होंने महर्षि दčाीचि की रीढ की हड्डी से बज्र बनाया था जिससे वृत्रासुर राक्षस का संहार किया गया था। ये बहुत ही तेजस्वी और प्रतापी थे। इनका विवाह महर्षि कौशिक की पुत्री जयंती के साथ हुआ था।
महर्षि शिल्पी वस्तु कला में प्रकाण्ड पंडित थे और अजन्ता एलोरा की गुफाओं, खजुराहों के विभिन्न चित्र, दुर्लभ नक्कासी, भव्य मंदिर एवं मूर्तिकलां बनाने का क्षय महर्षि शिल्पी को ही जाता है। ये सभी महर्षि शिल्पी की ही देन है। ये अथर्ववेद के पंडित थे। इन्होंने वास्तुकलां से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना की जिनमें विश्वकर्मा प्रकाश, शिल्प शाखा शिल्प साहित्य वास्तुकलां आदि प्रमुख है। इनका विवाह महर्षि भृगु की पुत्री करूणा से हुआ था।
महर्षि देवज्ञ सोना, चांदी आदि धाातुओं के पारखी थे और बडे ही तेजस्वी और परामी थे। आज जो गोल्ड स्मिथि और ज्वैलरी कटिंग महिलाएं पहनती है ये सब महर्षि देवज्ञ की ही देन है। इनका विवाह महर्षि जैमिनी की पुत्री चन्द्रिका के साथ हुआ था। इसके अतिरिक्त संज्ञा के दो पुत्रा अश्वनी कुमार थे जो आयुर्वेद के प्रवर्तक थे।
सर्व प्रथम अन्तरिक्ष मेें राकेट द्वारा जाने के लिए प्रथम रॉकेट का निर्माण करने वाले रूसी निवासी यूरीगागारिन थे जो एक विश्वकर्मा थे। उन्होंने स्वयं ही राकेट का निर्माण किया और उसके बाद अन्तरिक्ष में जाकर खगोल की खोज की। भगवान विश्वकर्मा कला, कौशल, विज्ञान, ज्योतिष भूगोल, खगोल, चिकित्सा तथा संगीत के प्रवर्तक हुए। आज पूरा विश्वकर्मा समाज उनका ऋणि है क्योंकि उनकी कृपा और आशीर्वाद के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं है। महर्षि विश्वकर्मा जी तथा उनके वंशजों ने समाज को जो कुछ दिया वह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन आज समाज अपने पूर्वजों और भगवान विश्वकर्मा जी को भूलता जा रहा है और अपने सरनेम के साथ शर्मा लगाकर अपने विश्वकर्मा समाज को लुप्ता कर समाप्त करने की कगार पहुंच चुका दिया है।
आज समाज में अपना स्थान बनाने के लिए हमें सर्वतोमुखी विकास करना होगा और संगठन सूत्र को अपनाना होगा। कहा गया है कि संघ शक्ति युगे-युगे वास्तव में यह बात सच है कि शक्ति संगठन में होती है ना कि एक-एक व्यक्ति के अलग-अलग खडे होकर अपनी शक्ति žcy― का प्रदर्शन नहीं कर सकते और न ही हमें एक जुट होना होगा। आज हम विश्वकर्मा वंशी अनेक उपवर्गो, पृथक विचार धाराओं और अलग-अलग मान्यताओं में बिखरे हुए है। इसलिए हमारे समाज का कोई अस्तित्व नहीं बन पाया है और न ही अन्य समाजों में राष्ट8 अथवा अन्तर्राष्ट8ीय स्तर पर कोई हमारी पहिचान बन पायी है। आज हम अधर में लटक रहे है यदि आज की दौड में हम पीछे रह गये तो फिर हमें सहारा देने वाला कोई नहीं रहेगा। क्योंकि ईश्वर भी उन्हीं की सहायता करते है जो अपनी सहायता अपने आप करते है।
आज हमारे समाज को देश के अंदर अन्य समाज के बराबर का दर्जा नहीं मिल रहा है। यह किसी और की कमी के कारण नहीं बल्कि हमारे समाज के अपने लोगों के कारण ही हा रहा है। इसलिए हमें किसी ओर के पास न जाकर पहले अपने अंदर की कमी खोजकर अपने अंदर छिपे अहंकार को मिठाकर एक जुट होकर एक साथ मिलकर चलना होगा तभी जाकर कहीं हमारा और हमारे समाज का अस्तिव बन पायेगा।
आदि शिल्पाचार्य महर्षि विश्वकर्मा जी की संतति
विश्वकर्मा शब्द के दो अर्थ है प्रथम इस संसार की रचना करने वाले विराट विश्वकर्मा है। जिन्हें सृष्टिकर्ता, प्रजापति, संवत्सर, सर्वस्यकर्ता अर्थात् परमात्मा के रूप में माना गया है। दूसरे विज्ञान, कला, कौशल, ज्योतिष भूगोल, चिकित्सा, संगीत तथा शिल्प के कर्णधार विश्वकर्मा है।
विश्वकर्मा जी के बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियां है क्योंकि विश्वकर्मा जी चारों युगों में हुए है। परमपिता परमेश्वर žविश्वकर्मा जी― ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को चारों वेदों का ज्ञान मश: अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा, अग्नि ऋषि को ऋग्वेद, वायु को यजुर्वेद, आदित्य को सामवेद तथा अंगिरा ऋषि को अथर्ववेद का ज्ञान दिया अथर्ववेद के प्रणेता महर्षि अगिरा के पुत्र आप्त्य, आप्त्य के भुवन और भुवन के महर्षि विश्वकर्मा शिल्प के प्रवर्तक हुए। इनका जन्म भविष्य पुराण, स्कंद पुराण के नागर खंड के अध्याय 5 के अनुसार माघ शुक्ल त्रयोदशी को तिब्बत में हुआ। ऐसा भी माना गया है कि प्रजापति के आठवें पुत्र वसु प्रभास हुए जिनके शिल्पाचार्य विश्वकर्मा हुए इनकी माता योग सक्ता, नाना अंगिरा, नानी अतिरूपा तथा मामा देवताओं के पुरोहित ब्रहस्पति तथा विश्वकर्मा जी पत्नि हिरण्य कश्यप की पौत्री, प्रहलादी थी। महर्षि विश्वकर्मा जी के मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी, देवज्ञ ये पांच पुत्र हुए ये भी देवताओं के पूज्य थे। अत: इन्हें महर्षि उपाधि प्राप्त थी।
1. महर्षि मनु:- लोह कलां में प्रवीण थे इनकी धर्मपत्नि महर्षि अंगिरा की पुत्री कांचना थी ये ऋग्वेद के ज्ञाता थे। इन्होंने मनु सूत्र, मनुतंत्र, मनुशिल्प आदि ग्रन्थों की रचना की।
2. महर्षि मय:- काष्ट कला में निपुण थे इनकी धर्म पत्नि मुनि पाराशर की पुत्री सुलोचना थी ये यजुर्वेद के ज्ञाता थे तथा आयुर्वेद के प्रकाण्ड पंडित थे। इन्होंने मय तंत्र, मय दीपिका, मय कला आदि ग्रन्थों की रचना की।
3. महर्षि त्वष्टा:- तांबा और कांसा के कार्य में निपुण थे। अस्त्र शस्त्र निर्माण में बडे चतुर थे इनकी धर्मपत्नि महर्षि कौशिक की पुत्री जयन्ती थी।
4. महर्षि शिल्पी:- वास्तु कला के प्रकाण्ड पंडित थे ये अथर्ववेद के पंडित थे।
इनकी धर्मपत्नि महर्षि भृगु की पुत्री करूणा थी। इन्होंने विश्वकर्मा प्रकाश, शिल्प शाखा, शिल्प साहित्य, वास्तु कला आदि गन्थों की रचना की।
5. महर्षि देवज्ञ:- सोना, चांदी आदि धातुओं का कार्य में निपुण थे। ये बडे तेजस्वी ओर परामी थे। इनकी धर्म पत्नि महर्षि जैमनी की पुत्री चन्द्रिका थी।
जो भी व्यक्ति उक्त पांच कर्म करते है वे सब प्रकार के पापों से बच जाते है। क्योंकि एकग्रामन से जब हम ये शिल्पकर्म करेंगे तो दुष्कर्म की बात सोचने का समय नहीं मिलेगा। आज शिल्पाचार्य विश्वकर्मा जी की संतान भिन्न-भिन्न प्रदेशों में निम्न नामों से पुकारी जाती है।
1. धीमान, 2. जाĄग़िड, 3. पांचाल, 4. उपाध्याय žओझा―, 5. टांक, 6. लाहौरी, 7. मथुरया, 8. सूत्राधार, 9. ककुहास, 10. रामगढिया, 11. मैथिल, 12. त्रिवेदी, 13. पिप्पला, 14. लौष्टा, 15. महुलिया, 16. रावत, 17. कान्यकुन्ज, 18. मालवीय, 19. मागध, 20. पंचालर, 21. सरवरिया, 22. गौड़, 23. देवकमलार, 24. विश्व ब्राहमण, 25. कशाली, 26. विश्वकर्मा, 27. नवनन्दन, 28. तरंच, 29. आचार्य, 30 जगत् गुरू

संकलनकर्ता - सचिन धीमान विश्वकर्मा
 

समाचार स्रोतः उ.प्र.समाचार सेवा

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