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साक्षात्कार/24.12.2009   

 आक्रोशित कारसेवकों ने छह दिसंबर को खो दिया था धैर्यः चंपत राय

Tag: Ayodhya, Ram Mandir, Justice Manmohan Singh Liberhan, Vishva Hindu Parishad VHP, Champatrai, Vijay Kumar

नई दिल्ली छह दिसम्बर, 1992 को बाबरी ढांचे के ध्वंस के उपरांत तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति लिब्रहान के नेतृत्व में एक सदस्यीय जांच आयोग बनाया। इसकी रिपोर्ट पिछले दिनों लीक हो गयी। अतः शासन को मजबूर होकर उसे संसद के पटल पर रखना पड़ा। रिपोर्ट में 68 व्यक्तियों को आरोपी बनाया गया है, जिसमें से एक हैं विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त महामंत्री श्री चंपत राय। उनसे 24 दिसम्बर 2009 को हुई वार्ता के संक्षिप्त अंश निम्न हैं।

प्रश्न - 17 साल की जांच के बाद आयी रिपोर्ट के बारे में आपका मत क्या है ?

उत्तर - मुझे तो यह खोदा पहाड़ और निकला चूहावाली कहावत का नया उदाहरण लगता है। जिसे छह महीने में रिपोर्ट देनी थी, उसने 17 साल बाद रिपोर्ट दी। 48 बार इसका कार्यकाल बढ़ाया गया। लगभग 10 करोड़ रु0 इस पर व्यय हुआ। फिर भी 1029 पृष्ठों की यह रिपोर्ट विसंगतियों और विरोधाभासों से भरी है। इस आयोग का नाम लेटलतीफी के लिए गिनीस बुक में लिखा जाना चाहिए।

प्रश्न - लिब्रहान आयोग को क्या काम बताये गये थे ?

उत्तर - मुख्य रूप से 6 दिसम्बर की घटना की जांच करना। जैसे इसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री, मंत्रीमंडल, प्रशासनिक अधिकारियों का क्या रोल था ? क्या वहां सुरक्षा के समुचित प्रबंध थे; क्या इसके पीछे कोई संगठित योजना थी, यदि हां तो वह किसने बनाई ? क्या मीडिया की भूमिका भी इसमें पक्षपातपूर्ण थी।

प्रश्न - तो क्या श्री लिब्रहान अपने उद्देश्य में सफल हुए ?

उत्तर - बिल्कुल नहीं। रिपोर्ट देखने से साफ लगता है कि श्री लिब्रहान को नरसिंहराव ने जो कहा था, उन्होंने वही लिखा है। इस काम को वह 17 दिन में भी कर सकते थे; पर उन्होंने 17 साल लगा दिये। उन्होंने कुछ लोगों व संगठनों को दोषी कहकर असली अभियुक्तों को बरी कर दिया। यह पूरी तरह मेज पर बनी रिपोर्ट है।

प्रश्न - मेज पर से आपका क्या अभिप्राय है ?

उत्तर - आयोग का कार्यालय लखनऊ में बनाया गया था; पर लिब्रहान महोदय एक दिन भी लखनऊ नहीं गये। उन्होंने सारा काम दिल्ली बैठ कर किया। क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि वे दिल्ली में सत्ता के गलियारों से निर्देशित हो रहे थे। इससे भी बड़ी बात यह है कि वे एक भी दिन अयोध्या नहीं गये। छह दिसम्बर की घटना जहां हुई, वहां जाकर स्थल निरीक्षण करने की जहमत उन्होंने नहीं उठाई। इससे स्पष्ट होता है कि रिपोर्ट के निष्कर्ष वे पहले ही तय कर चुके थे, 17 साल की कवायद में उन्होंने उसे तार्किक जामा पहनाने का प्रयास किया, जो असफल रहा।

प्रश्न - किन्हीं एक-दो विसंगतियों की बात बताएं।

उत्तर - आयोग ने पृष्ठ 942, पैरा 166.8 में गोविन्दाचार्य के अटल जी को मुखौटा कहने वाला कथन उद्धृत किया है। इसका इस प्रसंग से कोई संबंध नहीं है। गोविन्दाचार्य कई बार इसका खंडन कर चुके हैं। पृष्ठ 958, पैरा 171 में जिन लोगों को आरोपित किया है, उनमें से देवरहा बाबा तो 19 जून 1990 को ब्रह्मलीन हो चुके थे। शेष श्री वाजपेयी, बद्रीप्रसाद तोषनीवाल, मोरोपंत पिंगले, ओंकार भावे, प्रो0 राजेन्द्र सिंह, गुमानमल लोढ़ा आदि को कभी पूछताछ के लिए नहीं बुलाया। मैं भी उनमें से एक हूं। यह न्याय का तकाजा है कि आरोपियों को भी अपनी बात कहने का मौका दिया जाए। कमीशन अ१फ इन्क्वायरी एक्ट की धारा आठ बी के अन्तर्गत न्यायालय इसके लिए बाध्य है। इसमें विहिप के महामंत्री डा0 प्रवीण तोगड़िया को भी आरोपित किया है, जबकि वे तब केवल गुजरात में ही सक्रिय थे।

प्रश्न - आयोग ने मीडिया को भी दोषी ठहराया है।

उत्तर - यह टिप्पणी पूर्वाग्रह ग्रसित है। मीडिया ने वही लिखा और दिखाया, जो जमीनी सत्य था।

प्रश्न - आयोग ने न्यायपालिका पर भी कुछ टिप्पणी की है ?

उत्तर - उन्होंने पृष्ठ 935, पैरा 163.2 में उच्च न्यायालय, राज्यपाल तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त प्रेक्षक को अनुत्तरदायी तथा सर्वोच्च न्यायालय को भी दूरदृष्टि से रहित कहा है। श्री लिब्रहान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे हैं। उन्हें सर्वोच्च न्यायालय व राज्यपाल जैसे गरिमामय संस्थानों पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।  आयोग ने प्रदेश के राज्यपाल को भी पूछताछ के लिए नहीं बुलाया।

प्रश्न - आयोग ने छह दिसम्बर के कांड को षड्यन्त्र बताया है।

उत्तर - उन्होंने पृष्ठ 917, पैरा 158.9 में कहा है कि यह घटनाक्रम स्वयंस्फूर्त न होकर एक सुविचारित काम था; पर पृष्ठ 15, पैरा 7.4 के अनुसार ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला तथा किसी ने ऐसी कोई सूचना नहीं दी, जिससे यह प्रमाणित होता हो। पृष्ठ 775, पैरा 130.5 में भी उन्होंने यही कहा है। क्या यह आयोग के भ्रम और विरोधाभास का प्रमाण नहीं है ?

   पृष्ठ 15, पैरा 7.5 में वे कहते हैं कि मुसलमानों तथा समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने आयोग के सम्मुख अपनी बात कहने में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। अर्थात आम लोग भी इस आयोग को समय बिताने वाली एक व्यर्थ की कवायद मान रहे थे। पृष्ठ 782 पैरा 130.24 में आयोग ने गृह सचिव श्री गोडबोले का यह वक्तव्य उद्धृत किया है कि इस घटना के पीछे कांग्रेस या भाजपा की किसी योजना या षड्यन्त्र की जानकारी नहीं है। इन तथ्यों के बाद लिब्रहान महोदय किस आधार पर इसे एक षड्यन्त्र बता रहे हैं ?

प्रश्न - तो फिर छह दिसम्बर के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल पर प्रतिबंध क्यों लगाया गया ?

उत्तर - इसका जवाब तो प्रतिबंध लगाने वाले दें। 10 दिसम्बर को राव सरकार ने अनल१फुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट, 1967 के अन्तर्गत प्रतिबंध लगाया था, जिसकी जांच के लिए शासन ने दिल्ली उच्च न्यायालय के कार्यरत न्यायाधीश श्री पी.के.बाहरी की अध्यक्षता में 30 दिसम्बर 1992 को एक ट्रिब्यूनल गठित किया। इसमें शासन द्वारा नियुक्त आई.बी के वरिष्ठ पदाधिकारी श्री पांधी की भी गवाही हुई। 18 जून 1993 को ट्रिब्यूनल ने अपना निर्णय दिया, जो भारत सरकार के गजट (दि गजट अ१फ इंडिया, एक्स्ट्रा ओर्डिनरी, पार्ट 2, सेक्शन 3, सब सेक्शन 2) में प्रकाशित है।

  गजट के पृष्ठ 71 पर ट्रिब्यूनल ने कहा है कि विवादित ढांचे के विध्वंस में इन तीनों संगठनों द्वारा पूर्वयोजना बनाने का कोई प्रमाण नहीं है। पृष्ठ 72 पर वे कहते हैं कि केन्द्र सरकार द्वारा जारी श्वेत पत्र में भी पूर्वयोजना का उल्लेख नहीं है। इससे स्पष्ट है कि लिब्रहान महोदय के निर्णय पूरी तरह पूर्वाग्रह ग्रसित थे। यह भी उल्लेखनीय है कि बाहरी ट्रिब्यूनल के निर्णय को मानना शासन की बाध्यता थी, जबकि श्री लिब्रहान की रिपोर्ट शासन के लिए मात्र एक सुझाव है।

प्रश्न - उन्होंने अयोध्या और रामजन्मभूमि के बारे में क्या कहा है ?

उत्तर - उन्होंने पृष्ठ 23, पैरा 9.1, 9.2 और 9.3 में माना है कि अयोध्या प्रचलित परम्पराओं के अनुसार श्रीराम की जन्मभूमि है। यहां कई धर्म वाले लोग रहते हैं। यह एक शांतिपूर्ण स्थान है, जहां पर्यटक, साधु, संत और धर्मप्रेमी आते रहते हैं। इसे विशाला, कोसल, महाकोसल, इक्ष्वाकु, रामपुरी, राम जन्मभूमि आदि कहा जाता है। पैरा 9.4 में वे इसे हिन्दुओं के रामानंदी पंथ के लिए विशिष्ट बताते हैं। पैरा 9.5 में वे इसे श्रीराम जन्मस्थान कहकर सांस्कृतिक रूप से इसके पूर्वकाल को वर्तमान और भविष्य से जोड़ते हैं। इसके धार्मिक महत्व ने ही इसे अनेक उथल-पुथल के बावजूद सदियों से जीवित रखा है।

  पृष्ठ 25, पैरा 10.3 में उन्होंने फैजाबाद को 2.10 लाख आबादी का विष्णु मंदिरों वाला नगर तथा पृष्ठ 26, पैरा 10.10 में बहुधर्मी लोगों का शहर कहते हैं। पृष्ठ 29, पैरा 12.1 में वे अयोध्या के हर घर को मंदिर बताते हैं। पृष्ठ 29, पैरा 12.2 में संकटमोचन मंदिर, साक्षीगोपाल मंदिर, शेषावतार मंदिर, वेद मंदिर, मणिराम छावनी, हनुमान गढ़ी, कनक भवन, रंग महल, आनंद भवन एवं कौशल्या भवन आदि को प्रमुख मंदिर कहा है। पृष्ठ 32, पैरा 12.12 में उन्होंने भोगौलिक रूप से राम कथा कुंज, अयोध्या नगर, राम जन्मभूमि आदि को अविवादित माना है। इसकी पुष्टि श्री एन.सी.पांधी ने भी की है।

प्रश्न - क्या उन्होंने ने मस्जिद निर्माण की कुछ चर्चा की है ?

उत्तर - हां, उन्होंने पृष्ठ 61, पैरा 18.6 पर बाबर के सेनापति मीर बाकी द्वारा 15280 के हमले और मस्जिद बनाने की बात कही है; पर स्वयं को बचाते हुए उन्होंने ‘‘ऐसा कहते हैं कि उसने राम जन्मभूमि मंदिर को तोड़कर इसे बनाया’’ वाक्य लिखा है। पृष्ठ 61, पैरा 18.8 में वे लिखते हैं कि उसके बाद भी भक्तों द्वारा राम चबूतरे पर पूजा होती रही। 1949 में जब विवादित स्थल पर मूर्तियां रखीं गयीं, तब मुसलमानों ने कोई दावा नहीं किया। पृष्ठ 62, पैरा 18.9 में वे मस्जिद को एक स्वीकृत तथ्य बताते हुए पृष्ठ 63, पैरा 18.13 पर मानते हैं कि 1934 के बाद इसमें नमाज नहीं पढ़ी गयी। यह तथ्य प्रमाणित करते हैं कि मंदिर के स्थान पर ही मस्जिद बनी थी।

प्रश्न - इसका अर्थ तो यह हुआ कि इस विवाद से स्थानीय मुसलमानों को कोई मतलब नहीं था ?

उत्तर - जी हां। आयोग ने पृष्ठ 88, पैरा 26.2 पर माना है कि जब राममंदिर का ताला खुला, तो स्थानीय मुसलमानों ने आपत्ति नहीं की। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी में कोई स्थानीय मुसलमान है ही नहीं। हैदराबाद के सांसद सुल्तान शहाबुद्दीन ओवैसी ने इसे कोर्ट में चुनौती दी। पृष्ठ 89, पैरा 26.4 के अनुसार मुसलमानों ने कहीं-कहीं एक जनवरी से 30 मार्च 1987 तक गणतंत्र दिवस का बहिष्कार, (जो वापस ले लिया गया) बंद, रैली आदि द्वारा विरोध प्रदर्शन किया, जिसमें जामा मस्जिद के शाही इमाम, शहाबुद्दीन और सुलेमान सेत सरीखे लोगों ने हिंसा की सार्वजनिक धमकी दी। कैसी हैरानी की बात है कि आयोग ने इन लोगों पर कोई विपरीत टिप्पणी नहीं की।

प्रश्न - आयोग ने इस आंदोलन को बहुत छोटा आंदोलन कहा है।

उत्तर - इससे बड़ा मजाक कोई दूसरा नहीं हो सकता। पैरा 158.3 में वे इसे आंदोलन नहीं मानते; पर पैरा 158.10 तथा 159.10 में वे कई बार आंदोलन की कार्यवाही, आंदोलन के नेता आदि कहते हैं। यही इस रिपोर्ट का विरोधाभास है। यदि यह जनांदोलन नहीं था, तो छह दिसम्बर को देश के कोने-कोने से चार-पांच लाख लोग, जिनमें अधिकांश युवा थे, अयोध्या कैसे आ गये ? 1989 में छह करोड़ लोगों ने रामशिला पूजन में भागीदारी की। तीन लाख स्थानों पर शिला पूजन के आयोजन हुए। देश में इसके पूर्व इतना व्यापक जन सहयोग क्या किसी जनांदोलन में आज तक हुआ है ?

प्रश्न - आयोग के प्रति मुसलमानों का व्यवहार कैसा रहा ?

उत्तर - लगभग पांच साल बाद कुछ मुस्लिम प्रतिनिधियों ने उपस्थित होकर कहा कि छह दिसम्बर कांड से उनकी भावनाएं आहत हुई हैं; पर उन्होंने जांच में सहयोग नहीं दिया। शायद उन्हें भय था कि कहीं असलियत सामने न आ जाए। मुस्लिम ला बोर्ड तो दस साल बाद शामिल हुआ। जिन मुस्लिम प्रतिनिधियों ने प्रश्नोत्तर में भाग लिया, वे भी षड्यंत्र के बारे में प्रमाण नहीं दे सके। आयोग ने पृष्ठ 15, पैरा 7.3 और 7.4 पर इसका उल्लेख किया है।

प्रश्न - इस विवाद में बार-बार 2.77 एकड़ भूमि की बात आती है, वह क्या है ?

उत्तर - राममंदिर से लगी इस भूमि को प्रदेश शासन ने सार्वजनिक उपयोग हेतु 1991 में अधिग्रहित किया था। प्रयाग उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में चुनौती देने पर इस वाद को न्यायमूर्ति माथुर, न्यायमूर्ति ब्रजेश कुमार तथा न्यायमूर्ति रजा की पूर्ण पीठ ने सुना। चार नवम्बर 1992 को सुनवाई पूरी हुई। निर्णय हेतु चार दिसम्बर 1992 की तारीख तय हुई। पहले दो न्यायाधीशों ने निर्णय लिख दिया; पर तीसरे जज ने इसे 11 दिसम्बर के लिए टाल दिया। यह तारीख कारसेवा के लिए निर्धारित तारीख 6 दिसम्बर के बाद पड़ रही थी। इससे आक्रोशित होकर कारसेवक अपना धैर्य खो बैठे और छह दिसम्बर की घटना हो गयी।

प्रश्न - राममंदिर के लिए कितने मुकदमे चल रहे हैं, क्या उनका कभी अंत होगा ?

उत्तर - पहला मुकदमा 1950 में शुरू हुआ, जिसका वर्तमान नंबर ओ.ओ.एस 1/1989 है। 1959 में शुरू हुए दूसरे मुकदमे का वर्तमान नंबर ओ.ओ.एस 3/1989 है। 1961 में शुरू हुए तीसरे मुकदमे का वर्तमान नंबर ओ.ओ.एस 4/1989 है। 1989 में दायर किये गये चैाथे मुकदमे का वर्तमान नंबर ओ.ओ.एस 5/1989 है।

   1950 में परमहंस रामचंद्र दास जी ने एक मुकदमा किया, जिसका नंबर ओ.ओ.एस 2/1989 लिखा गया। 1990 में उन्होंने अदालत में कहा कि मुकदमा दायर करते समय मैं 40 साल का था। अब मैं 80 साल का हूं। मेरे मरने के बाद फैसला आया, तब मैं क्या करूंगा ? यह कहकर उन्होंने अपना वाद वापस ले लिया। यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दू समाज का पहला वाद जनवरी 1950 को दायर हुआ। जबकि मुस्लिमों का पहला वाद सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड की ओर से 18 दिसम्बर 1961, अर्थात भगवान के प्रकट होने के लगभग 12 वर्ष बाद हुआ।

  लगभग 40 साल तक ये मुकदमे फैजाबाद कोर्ट में लटके रहे। 1989 में इन्हें प्रयाग उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को भेज दिया गया। तब से 20 साल बीत गये हैं। कभी एक जज सेवानिवृत हो जाता है, तो कभी दूसरा। इससे बेंच का 11 बार पुनर्गठन हो चुका है। हिन्दू देश में हिन्दुओं को अपने धर्मस्थान के लिए ही न्याय नहीं मिल रहा है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है ? न्याय में देरी का अर्थ न्याय को नकारना और व्यवस्था को बिगाड़ना है।

प्रश्न - अब सरकार क्या करेगी ?

उत्तर - यह तो वही जाने; पर जैसा मैंने पहले कहा कि यह रिपोर्ट केवल सुझाव मात्र है। इसे मानना या न मानना सरकार के हाथ में है। अभी तो इस पर संसद में बहस होनी है। अधिकांश लोगों का मत है कि झारखंड चुनाव में लाभ उठाने के लिए इसे लीक किया गया है। सरकार को इसका भी जवाब देना होगा। सच तो यह है कि इस रिपोर्ट ने श्री लिब्रहान तथा सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। इससे आयोग की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है।

प्रश्न - हमने कभी सुना था कि राष्ट्रपति महोदय ने सर्वोच्च न्यायालय को यह विषय सौंपा था। उसका क्या हुआ ?

उत्तर - ढांचा गिरने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 20 महीने सुनवाई हुई और इस सवाल का उत्तर लखनऊ उच्च न्यायालय देगा, यह कहकर प्रश्न अनुत्तरित वापस भेज दिया गया था।

प्रश्न - जो खुदाई हुई थी, इसके बारे में कोई जानकारी दें।

उत्तर - लखनऊ उच्च न्यायालय ने 2002 के आसपास राष्ट्रपति जी के प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए भूमि के नीचे की फोटोग्राफी कराई। उसमें यह स्पष्ट आया कि वहां किसी विशाल भवन के अवशेष हैं। इसकी सत्यता जांचने के लिए खुदाई हुई थी, जिसने फोटोग्राफी रिपोर्ट को सत्य ठहराया। वहां पर 27 दीवारें और चार फर्श निकले। दीवारांे में सुंदर नक्काशीदार पत्थर लगे पाये गये। खंडित मूर्तियां प्राप्त हुईं। अंत में वहां एक शिवमंदिर मिला। इसकी रिपोर्ट उच्च न्यायालय के रिकार्ड में है। बहस के समय इनका उपयोग होगा।

प्रश्न - अब इस बारे में विहिप की क्या नीति है ?

उत्तर - विहिप की नीति पूज्य साधु संत तय करते हैं। 2010 में हरिद्वार में महाकुंभ होगा। वहां संत जो निर्णय लेंगे, उसके अनुसार हम चलेंगे। शासन संतों से टकराव मोल न ले। हिन्दुओं की मांग अयोध्या, मथुरा और काशी के तीन मंदिरों की है। शासन संसद में कानून बनाकर इस समस्या को हल करे। इससे देश में स्थायी सद्भाव स्थापित हो सकता है। यदि शासन और मुसलमानों ने अपनी जिद नहीं छोड़ी, तो पहले से भी अधिक प्रबल जनांदोलन हम चलाएंगे।                                     

विजय कुमार

संकटमोचन आश्रम,

रामकृष्णपुरम्/6, नई दिल्ली - 22

 

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News source: UP Samachar Sewa

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