देहरादून। नैनीताल हाईकोर्ट के निर्णय की प्रति उपलब्ध न होने पर
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को फौरी राहत देते हुए 27
अप्रैल तक राष्ट्रपति शासन जारी रखने का निर्णय दिया है।
सभी पक्षों को 26 अप्रैल तक हाईकोर्ट का निर्णय लिखित
उपलब्ध करा दिया जाये और इस बीच केंद्र सरकार राज्य में
नई सरकार के लिये कोई राजनैतिक पहल नही कर सकेगी - ऐसा
आश्वासन प्राप्त करने में कांग्रेस के पक्षकार सफल रहे
हैं।
उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन को हटाकर पुनः
लोकतांत्रिक सरकार की बहाली करते हुए हाईकोर्ट ने बीते
कल केंद्र सरकार पर धारा 356 के दुरपयोग, संघीय ढांचे
में निर्वाचित राज्य सरकारों के साथ केंद्र की रस्साकशी
और संवैधानिक अधिकारों के निरंकुश उपयोग के लिए दोषी ठहरा
दिया था। सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण पीठ द्वारा निर्णित
बोम्मई मामले को आधार बनाते हुए सरकार को विधानसभा में
28 अप्रैल को अपना बहुमत साबित करने का आदेश भी दिया ।
बागियों पर कोर्ट की तल्ख
टिप्पडी
इस बार उच्च न्यायलयों ने ध्यान रखा है कि राष्ट्रपति
शासन की आड़ में अचानक अनैतिक गठबंधन से नई सरकार का गठन
ना होने पाये। जैसा कि दल - बदल कानून को धत्ता बताकर
अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस के बागी सरकार बनाने में
सफल हो गये थे और भाजपा ऐसी सरकार का वहां समर्थन कर रही
है। नैनीताल हाईकोर्ट ने कांग्रेस के बागियों को
संवैधानिक पापी कहा है और लोकतंत्र को कमजोर करने का दोषी
माना है। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने निर्णय में यह राइडर
लगाया है कि कंेद्र सरकार मामले की अगली सुनवायी तक अब
उत्तराखंड से राष्ट्रपति शासन नही हटायेगी और तब तक भाजपा
के नेतृत्व में सरकार बनाने की पहल भी परवान नही चढ़
सकेगी।
कानून के जानकार मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट शायद ही
नैनीताल हाईकोर्ट के निणर्य में अधिक बदलाव करे और हरीश
रावत को बहुमत साबित करने का अवसर विधानसभा पटल पर पाने
से रोक लगे। चूंकि सारा मामला मैरिट पर सुना जाना है और
हाईकोर्ट ने भी कंेद्र सरकार के खिलाफ निर्णय देने में
कानून की सारी बारिकियों को देखा - परखा होगा। फिर
बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट दो दशक पहले ऐसे मामलों
के लिये नज़ीर बना चुकी है कि बहुमत के दावे विधानसभा
पटल पर ही तय हों। हाईकोर्ट ने इस अंदेशे को भी विराम
दिया है कि यदि वित्त विधेयक पास होने में संशय था तो वो
28 मार्च को बहुमत परीक्षण में स्पष्ट हो जाता। ऐसे में
बहुमत परीक्षण से ठीक एक दिन पहले केंद्र की राष्ट्रपति
शासन लगाने की हड़बड़ी अवांछित कदम था।
रावत की चाल में फंसे
भाजपा के रणनीतिकार
हरीश रावत भी सरकार बनाने की जल्दी में नही है और इस
मामले को चुनाव तक ले जाना चाहते हैं ताकि शहीद के तमगे
और कांग्रेस के दागी - बागी नेताओं के साथ भाजपा के
अनैतिक गठजोड़ को आम जनता के बीच सहानुभूति बटोरने के
लिये ज्यादा प्रचारित किया जा सके। भाजपा के उत्तराखंड
प्रभारी और रणनीतिकार आसानी से कांग्रेस के दिग्गज हरीश
रावत की चाल में फंसते जा रहे हैं।
नई दिल्ली में उत्तराखंड भाजपा के प्रभारी श्याम जाजू और
महामंत्री विजय वर्गीय सरकार बनाने के लिये बहुमत का दावा
कर रहे हैं। यह दावा कांग्रेस के नौ बागियों को मतदान का
अधिकार मिलने पर ही टिकता है जबकि स्पीकर इनकी विधायकी
पहले ही निरस्त कर चुके हैं। अभी तक उत्तराखंड भाजपा के
नेता हर पहल के लिये हाईकमान की ओर ही टकटकी लगाये बैठे
हैं। ऐसे में हरीश रावत आरएसएस और मोदी को दलबदल के लिये
निरंतर कोसने के साथ ही उत्तराखंड में भी क्षेत्रीय बनाम
बाहरी नेतृत्व का मुद्दा छेड़ सकते हैं।
बहुमत के लिए भाजपा के पास कांग्रेस के बागी ही पहली
प्राथमिकता बने हुए हैं क्योंकि अभी तक सतपाल महाराज अपने
करीबी कांग्रेस और पीडीएक के विधायकों को भाजपा के पाले
में खड़ा नही कर पाये हैं। पीडीएफ में उत्तरकाशी जनपद के
एक विधायक भगत सिंह कोशियारी के करीबी बताये जाते हैं
लेकिन अभी तक पीडीएफ के छह विधायकों में कांग्रेस से बागी
होकर निर्दलीय चुनाव जीते तीन, यूकेडी का एक, बसपा के दो
सदस्य हैं और अभी तक सभी हरीश रावत के साथ एकजुटता बनाये
हुए हैं। भाजपा के निलंबित विधायक भीमलाल आर्य की सदस्यता
निरस्त करने का पत्र भाजपा के चीफ व्हीप मदन कौशिक ने
राष्ट्रपति शासन लगने के बाद स्पीकर गोविंद सिंह कुंजवाल
को दिया है। भीमलाल आर्य खुलकर हरीश रावत के साथ बने हुए
हैं और विधायकी जाने पर भाजपा की संख्या विधान सभा में
कांग्रेस के बराबर 27 रह जायेगी।
भावुक पहाड़ी जनता
नेताओँ के दांव-पेच से हलकान
भाजपा हाईकमान यह समझ नही पा रही है कि उत्तराखंड की
पहाड़ी जनता भावुक और छल -बल से परे रहती है। उत्तराखंड
राज्य के आंदोलन की कमान और प्रमुख संघर्ष महिला
आंदोलनकारियों के हाथों रहा है। भले ही आज दलगत राजनीति
में महिला भागीदारी ना के बराबर ही है। भाजपा में जहां
भगत सिंह कोशियारी और भुवन चंद्र खंडूडी ही आम जनमानस से
जुड़े नेता हैं। वहीं कांग्रेस में नारायण दत तिवारी के
बाद हरीश रावत की पकड़ उत्तराखंड में बहुत गहरी है। ये
हरीश रावत वर्ष 2002 और वर्ष 2012 के चुनाव में भाजपा को
पटखनी देकर साबित कर चुके हैं।
जहां बागियों की विधायकी निरस्त होने पर भाजपा को इन सीटों
पर होने वाले उपचुनाव में अपने को सशक्त बनाने का अवसर
मिल सकता है। वहीं वर्ष 2017 के आम चुनाव में कांग्रेस
की फूट और बेइमान शासन के मुद्दे भाजपा के लिए वरदान
साबित हो सकते हैं। उत्तराखंड में बागियों के दम पर भाजपा
सरकार का गठन नौ माह बाद होने वाले चुनाव में आत्मघाती
भी सिद्ध हो सकता है। फिलहाल उत्तराखंड के लिये रणनीति
बनाने वाले बड़े नेता फेल साबित हुए हैं क्योंकि स्थानीय
अभिलाषाओं की जगह कांग्रेस के बागी नेताओं से अनैतिक
गठजोड़ सरकार बनाने के लिए छोटा व सरल रास्ता दिख रहा था
और अब हालत यह बन रही है कि नमाज़ छुड़ाने गये थे और रोजे़
गले पड़ गये। फिलहाल भाजपा के लिये समस्या कांग्रेस के
दागियों और बागियों से अपनी दूरी बनाने और कांग्रेस की
फूट से अपने को कोसों दूर रखने की है । अन्यथा अगले
चुनाव में चाल , चरित्र , सुचिता और अलग पार्टी के नारे
ही भाजपा की गले की फांस बन सकते हैं।