देहरादून।
आज नैनीताल हाई कोर्ट ने अपनी सिंगल बैंच के कल के
निर्णय को 6 अप्रैल के लिए आगे बढ़ा दिया है। जिससे अब
कल विधान सभा में होने वाला हरीश रावत सरकार का
विश्वास मत फिलहाल टल गया है। अन्यथा 31 मार्च को
प्रातः 11 बजे विधानसभा में विश्वास मत होना था। जिस
में कांग्रेस के बागियों को भी अलग से मत करना था। ऐसे
में विधायिका और न्यायपालिका के बीच फिर लक्ष्मण रेखा
का उल्लंघन स्वाभाविक था। उत्तराखंड के स्पीकर गोविंद
सिंह कुंजवाल कांग्रेस के नौ बागी विधायकों की सदस्यता
निरस्त कर चुके हैं और हरीश रावत को 28 मार्च को
विश्वास मत हासिल करने का निर्देश राज्यपाल केके
पाल ने दिया था। इसी बीच 27 मार्च से राष्ट्रपति शासन
लागू होने के बाद हरीश रावत के नेतृत्व वाली बर्खास्त
कांग्रेस सरकार जनता के बीच शहीद होने का ढिंढौरा पीट
रही हैं।
कांग्रेस के नामी
वकील अब नैनीताल हाईकोर्ट में भी भाजपा की मुश्किले
बढ़ाते हुए केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा करके दाव
पेंच खेल रहे है। संशय की स्थिति इस कदर बन गयी थी कि
बिना राष्ट्रपति शासन हटाये विधानसभा का सत्र कैसे
आहुत किया जा सकता है ? 18 मार्च से चल रहा यह
राजनीतिक प्रकरण अब भाजपा के लिये ही किरकिरी बनता जा
रहा है - आखिर भाजपा को बागी कांग्रेसी विधायकों के
लिये इतना तामझाम करने की क्या जरुरत है ? भाजपा और
बागी कांग्रेसियों के बीच दूरियां ऐसे ही मिटती रही तो
1977 के जनता सरकार पतन की पटकथा फिर से लिखी जानी तय
है -सत्ता के दिनों में बागी नेता आज भाजपा से दोस्ती
तो कर सकते हैं पर आरएसएस के लिये इनके दिलों में जगह
कौन और कैसे बनायेगा ? सत्ता हीन भाजपा का साथ यह बागी
देंगे जो आज अपनी पहली पार्टी के ही वफादार नही हुए ?
उत्तराखंड की चौथी विधानसभा का चुनाव फरवरी 2016 में
संभावित हैं और अगले छह माह के भीतर प्रदेश में आचार
संहिता लगते ही माननीय विधायक निष्प्रभावी हो जायेंगे।
अब कार्यकाल के आखिरी साल में अधिक से अधिक बटोरने की
चाह में कांग्रेस के नौ माननीयों ने अपनी पार्टी,
हाईकमान, झंडे और समर्थकों को ताक पर रखकर फूटी आंख ना
भाने वाली पार्टी के साथ अवैध गठजोड़ किया और सरकार
गिराने के लिये देहरादून से लेकर दिल्ली तक अपने बगावती
बिगुल जमकर फूंके। उत्तराखंड विधानसभा के इतिहास में
18 मार्च 2016 अब काला दिवस बन चुका है। जब सत्ता झपटने
के लिये लोकतंत्र का चीर हरण हमारे जनप्रतिनिधियों ने
किया। देवभूमि के नेताओं की कारगुजारियां उन्हें दागी
और बागी साबित करने के लिये पर्याप्त गवाही बटोर चुकी
हैं। उत्तराखंड प्रदेश में पहली बार राष्ट्रपति शासन
लगाया गया है और इसका शर्मनाक कारण दल-बदल करके एक साल
से भी कम समय वाली विधानसभा में सत्ता हथियाना बना है।
विधायिका सदन के सदस्य जनता के हित में विधायी कामकाज
निपटाते हैं ताकि समय पर बजट पास हो और प्रदेश में
संवैधानिक व्यवस्थायें चरमरा ना जाये। संसद और विधान
सभा में बजट पास कराना पक्ष और विपक्ष दोनों दलों के
सदस्यों का नैतिक दायित्व है। इन कार्यों के लिए
माननीयों को वेतन, भत्ते और तमाम सुख-सुविधायें मिलती
हैं। उत्तराखंड के सभी बागी विधायक जो सरकार में विगत
चार सालों से जनता के धन पर ऐशो - आराम में थे । 18
मार्च को अपनी सरकार का बजट गिराने का दावा करते दिखे।
यह बागी विधायक अपना इस्तीफा देकर अपना विरोध प्रकट
करते और लोकतंत्र को मजबूत कर सकते थे । बजट क्यूं नही
पास होना चाहिए - इसका जवाब नेता विपक्ष के पास भी नही
था। सिवाय इस कथन के बजट पास नही हुआ है और कांग्रेस
सदस्यों ने भाजपा के पक्ष में सुर मिलाकर दलबदल कर लिया
है और अपनी निर्वाचित सरकार और लोकतंत्र की बलि चढ़ा
दी है। संसद और विधान सभा सत्रों में माननीयों का
व्यवहार दिन - प्रतिदिन गरिमा खोता जा रहा है।
उत्तराखंड में लोकतंत्र को स्थगित कर राष्ट्रपति राज
थोपने में और संवैधानिक संकट की ओर धकेलने में भाजपा
के रणनीतिकार संदेह के घेरे में हैं। सरकार गिराने के
लिए अविश्वास प्रस्ताव ना लाकर वित्त विधेयक जैसे
टेक्नीकल मुद्दे का सहारा जंचता नही है। भाजपा के बड़े
पदाधिकारियों की बजट सत्र में उपस्थ्तिि और सत्र के
दौरान भाजपा विधायकों को सामूहिक रुप से होटलों में
रोककर रखने से यही आभास होता है कि इस दलबदल की जानकारी
भाजपा हाईकमान को थी। मोदी मंत्रीमंडल के मंत्री महेश
शर्मा 18 मार्च को दिल्ली से चार्टड प्लेन लेकर शाम को
देहरादून आये और भाजपा विधायकों के साथ कांग्रेस के नौ
बागी विधायकों को समेटकर दिल्ली के लिए रात में ही उड़
गये। जहां बागी विधायकों के साथ भाजपा विधायकों को भी
सितारा होटलों में ठहराया और राष्ट्रपति महोदय के आगे
परेड का कार्यक्रम बनाया गया । बाद में कांग्रेस के
बागियों को साथ ना ले जाकर भूल सुधार भी किया गया।
राज्यपाल महोदय ने आधी रात कोे विधायकों की इच्छानुसार
सरकार को अपदस्थ नही किया। अन्यथा लोकतंत्र के लिए एक
घातक परंपरा का श्रीगणेश हो जाता । किसी भी दल का
विधायक अपनी पार्टी को धता बताकर दूसरे दलों से जा
मिलता और संख्या बल के नाम पर चौबीस घंटे सरकार गिराने
के षडयंत्र में लिप्त धंधेबाज पत्रकार - दागी नेता
राजभवन की गरिमा को भी कलंकित करने में भी पीछे नही
रहते।
टीवी चैनल में चल रही खबरों में दागियों को पार्टी में
लौटने के लिये करोड़ों की पेशकश और मंत्रीपद से नवाजने
के प्रलोभन हैं तो फिर अपनी पार्टी से बगावत करने के
लिये माननीयों ने क्या - क्या नही वसूला होगा ? विजय
बहुगुणा अपने स्व0 पिता एचएन बहुगुणा की राजनीतिक
विरासत के दमपर कांग्रेस में सांसद और मुख्यमंत्री पद
तक पहुंचे हैं और हरक सिंह यूपी के जमाने से कई
राजनीतिक दलों का दोहन कर चुके हैं। दोनों को छोड़कर
अन्य विधायकों का अपनी आलाकमान को आंखें दिखाना कुछ
हैरत में जरुर डालता है। क्या राजनीति में इतना छप्पर
फाड़कर मिल रहा है ? कैबिनेट मंत्री, दर्जाधारी
मंत्रियों और पूर्व मुख्यमंत्री अपनी ही पार्टी की
निर्वाचित सरकार को गिराने के लिये हर हथकंडे अपनाकर
बागी बन जायें और अपनी सरकार के विरुद्ध लूट - खसोट,
भ्रष्टाचार और माफिया राज के बयान जारी करने लगें। फिर
अपनी विधायकी बचाने के लिये लोकतंत्र की दुहाई देते
हुए न्यायपालिका से हस्तक्षेप मांगकर अपनी विधायिका को
ही गौण बना दे।
ऐसे दागी नेताओं का देश के जनमत, संविधान और लोकतंत्र
की प्रणाली में विश्वास कहां है ? कानूनी व्यवस्था तो
ऐसी होनी चाहिये कि बागियों के दलबदल और इस्तीफा ना
देने पर न्यायपालिका से भी संरक्षण ना मिले। अपनी
पार्टी से बागी होते ही इनकी सदस्यता स्वतः समाप्त हो
जाये। इनके निर्वाचन और सरकारी पद पर रहते हुए और भावी
चुनाव में होने वाले सार्वजनिक धन की हानि की वसूली भी
ऐसे बागी जनप्रतिनिधियों से की जानी चाहियें। ताकि
लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को
अपनी मौज - मस्ती के लिये दागी - बागी नेता इस्तेमाल
ना कर सकें।
18 मार्च से भाजपा के विधायक भी अपना उत्तराखंड छोड़कर
दिल्ली, पुष्कर, जयपुर आदि स्थानों में पांच सितारा
होटलों में रहे या अज्ञातवास में भटकते रहे है। इस से
भाजपा विधायकों की विश्वसनीयता समाज में गिरी है। आम
जनता के साथ विधायकों की दूरी होने से जन सरोकारों और
होली पर्व पर अपने क्षेत्रवासियों से दूरी बनाना
विधायकों के लिए शर्मसार करने वाला विषय है। राष्ट्रपति
शासन के दौरान विधायकों के लिये सहजता से जनता के काम
कराने में बाधा आना स्वाभाविक है।
शायद भाजपा हाईकमान का डर रहा कि भीम लाल आर्य और
पूर्व में किरन मंडल की तरह दूसरे माननीय भी हरीश रावत
के सम्मोहन और मायाजाल में फंस सकते हैं। तब यह पूरी
प्रक्रिया हवन करते हाथ जलाने की हो सकती है। विजय
बहुगुणा ने सबसे पहले मुख्यमंत्री बनते ही भाजपा के
किरन मंडल से दल बदल करवाया था। वर्ष 2012 में भाजपा
विधायक का इस्तीफा माल कमाने राजनीति में आये नेताओं
की पोल पट्टी खोलने वाला प्रकरण बना था। उत्तराखंड में
अभी तक पंचायत चुनावों में ही वोटरों की बोली लगती थी।
उन्हें घेरकर अपने पक्ष में रखने के लिये पैसे वाले
प्रत्याशी नेपाल, गोवा, हिमाचल, राजस्थान आदि प्रदेशों
में मौज - मस्ती के लिए घुमाने ले जाते थे और पैसे के
बल पर बिना जनता के बीच रहे जीत हासिल करते रहे हैं।
हरक सिंह की पत्नी दीप्तीरावत अध्यक्ष जिला पंचायत
गढ़वाल, निकटतम लक्ष्मी राणा अध्यक्ष जिला पंचायत,
रुद्रप्रयाग और दर्जनों लालबत्ती धारक समर्थकों को भी
सत्तासुख त्यागना पड़ सकता है। अन्य बागी विधायकों और
उनके समर्थकों को भी कीमत चुकाने की बेचैनी हो रही है।
साकेत बहुगुणा 6साल के लिए कांग्रेस से बाहर और विधायक
सुबोध उनियाल के भाई को सालिस्टर जनरल के पद से हरीश
रावत हटा चुके हैं।
अब तक नैनीताल हाईकोर्ट के रुख से यही स्पष्ट होता है
कि राज्यपाल महोदय का विधान सभा में बहुमत साबित करने
का निर्णय एक दम स्टीक था। हां, यदि 18 मार्च को वित्त
विधेयक पारित नही हो पाया था तो अगले दिन बहुमत का
निर्णय करके धारा 356 के तहद सरकार को अपदस्थ कर
राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता था। अब नौ बागी विधायकों
के पक्ष में भाजपा का हिमायती होना बड़ी राजनीतिक चूक
बन सकती है क्यूंकि हरीश रावत का बहुमत सदन में बागियों
की सदस्यता निरस्त होने के बाद कम हुआ है। कांग्रेस की
टूट भाजपा को मजबूत करती है और वैसे भी उत्तराखंड
राज्य में भाजपा के पास तीन निर्वतमान मुख्यमंत्री हैं
और सतपाल महाराज, विजय बहुगुणा और हरक सिंह को भाजपा
ज्वाइन कराने के बाद यह महत्वकाक्षीं संख्या आधा दर्जन
पार कर जायेगी ।