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लखनऊ, 30 सितम्बर। (उप्रससे)। आल्हा की
ऐतिहासिकता प्रमाणित है। इसके पर्याप्त
साक्ष्य और प्रमाण विभिन्न स्थानों पर आज
भी मौजूद हैं। इसलिए यह कहना कि आल्हा-ऊदल
काल्पनिक पात्र हैं, ऐतिहासिक सत्य को
झुठलाना है। यह बात आज यहां वरिष्ठ
पत्रकार, सांस्कृतिक और लोक साहित्य लेखक
और कलाविद् अयोध्या प्रसाद गुप्त कुमुद ने
कही। श्री कुमुद लोक कला संग्रहालय में
आयोजित आल्हा की ऐतिहासिकता विषयक संगोष्ठी
में मुख्य वक्ता के रूप में विचार व्यक्त
कर रहे थे।
आल्ह खण्ड की ऐतिहासिकता को प्रमाणित
करते हुए श्री कुमुद ने कहा कि आज भी अनेक
शिलालेख और भवन मौजूद हैं। ये प्रमाणित
करते हैं कि आल्हा ऊदल ऐतिहासिक पात्र
हैं। उन्होंने बताया कि आल्हा और मलखान के
शिलालेख हैं। श्री कुमुद के अनुसार वर्ष
1182 ई.शिलालेख आज भी मौजूद है। इसमें
उल्लेख है कि पृथ्वीराज चौहान ने महोबा के
परमाल राजा को पराजित किया था। आल्हा के
ऐतिहासिक व्यक्तित्व की पुष्टि उत्तर
प्रदेश के जनपद ललितपुर में मदनपुर के एक
मन्दिर में लगे शिलालेख (सन् 1178 ई) से
भी होती है। इसमें आल्हा का उल्लेख बिकौरा
प्रमुख अल्हन देव के रूप में हुआ है।
मदनपुर में आज भी 67 एकड़ की एक झील है। इसे
मदनपुर तालाब भी कहते हैं। इसके पास ही
बारादरी बनी है। यह बारादली आल्हा-ऊदल की
कचहरी के नाम से प्रसिध्द है। इस बारादरी
और झील को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण
विभाग (एएसआई) ने संरक्षित किया है।
चन्दवरदाई ने आल्हा को अल्हनदेव कहाः
पृथ्वीराज रासौ में भी चन्द्रवरदाई ने
आल्हा को अल्हन देव शब्द से सम्बोधित किया
है। बिकौरा गांवों का समूह था। आज भी
बिकौरा गांव मौजूद है। इसमें 11 वीं और 12
वीं शताब्दी की इमारते हैं। इससे प्रतीत
होता है कि पृथ्वीराज चौहान के हाथों
पराजित होने से चार साल पहले महोबा के राजा
परमाल ने आल्हा को बिकौरा का प्रशासन
प्रमुख बनाया था। यह गांव मदनपुर से 5 किमी
की दूरी पर स्थित है तथा दो गांवों में
विभक्त है। एक को बड़ा बिकौरा तथा दूसरे को
छोटा बिकौरा कहा जाता है। उन्होंने बताया
कि महोबा में भी 11 वीं और 12 वीं शताब्दी
के ऐसे अनेक भवन मौजूद हैं जोकि आल्हा-ऊदल
की प्रमाणिकता को सिध्द करते हैं। इसी तरह
सिरसागढ़ मे मलखान की पत्नी का चबूतरा भी
एक ऐतिहासिक प्रमाण है। यह चबूतरा मलखान
की पत्नी गजमोदनी के सती स्थल पर बना है।
पृथ्वीराज चौहान के साथ परमाल राजा की पहली
लड़ाई सिरसागढ़ में ही हुई थी। इसमें मलखान
को पृथ्वीराज ने मार दिया था। यहीं उनकी
पत्नी सती हो गई थी। सती गजमोदिनी मान्यता
इतनी अधिक है कि उक्त क्षेत्र मे मंगलाचरण
में पहले सती की वंदना की जाती है।
उन्होंने बताया कि आल्हा-ऊदल की ऐतिहासिकता
की पुष्टि पन्ना के अभिलेखों में सुरक्षित
एक पत्र से भी होती है। यह पत्र महाराजा
छत्रसाल ने अपने पुत्र जगतराज को लिखा था।
आठ सौ साल तक श्रुति परम्परा में जीवित
रही आल्हाः मुख्य वक्ता श्री कुमुद ने
आगे कहा कि आल्हा के किले को भी भारतीय
पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित किया
है। आल्हा की लाट, मनियादेव का मन्दिर,
आल्हा की सांग आज भी मौजूद हैं। इन्हें भी
एएसआई ने मान्यता दी है। श्री कुमुद ने कहा
कि आल्हा का 800साल तक कोई ग्रंथ उपलब्ध
नही ंहुआ। क्योंकि यह एक काब्य में मौजूद
रही तथा श्रुति परम्परा में गायकों ने इसे
जीवित रखा। इसे परमाल राजा के भाट जगनिक
ने आल्हा-ऊदल की शौर्य गाथा के रूप में
गाया और संरक्षित किया। गायक जगनिक ने पहली
बार सेना के सामान्य सरदारों और सैनिकों
को अपनी गाथा में शामिल कर उनका यशोगान
किया। उसने बहादुर सैनिकों को उनके यथोचित
सम्मान से विभूषित किया। आल्हा-ऊदल दोनों
ही राजा नही थे। इसलिए उनके बारे में
इतिहास में यादा उल्लेख नहीं मिलता है।
जबकि इतिहासकार परमाल, पृथ्वीराज चौहान और
जयचंद को ऐतिहासिक व्यक्तित्व मानते हैं।
उन्होंने बताया कि आल्हा के लेखन का कार्य
सबसे पहले फर्रुखाबाद के कलेक्टर सर
चार्ल्स इलियट ने 1865 में कराया। इसका
संग्रह आल्ह खण्ड के नाम सेहुआ तथा यह पहला
संग्रह कन्नौजी भाषा में था।
संगोष्ठी की अध्यक्षता इतिहासविद् हरिचरन
प्रकाश ने की। संग्रहालय अध्यक्ष श्रीमती
आशा पाण्डे ने अतिथियों का आभार व्यक्त
किया। कार्यकम में सहायक निदेशक डा.एस,एन.
उपाध्याय भी मौजूद थे। कार्यक्रम का
संचालन यशवंत सिंह राठौर ने किया। |