महात्मा
गांधी युगदृष्टा थे। उन्होंने न केवल
राजनैतिक स्वतंत्रता की चिंता की, बल्कि
इसके बाद का भारत कैसा होगा? इसका भी
स्वप्न देखा। राष्ट्र, समाज, उद्यम और
सामान्य जन-जीवन का शायद ही ऐसा कोई
क्षेत्र होगा, जिसका चिंतन गांधी न किया
हो। आम तौर पर गांधी के दर्शन को
शुचितापूर्ण ‘राजनीतिक आन्दोलन‘, ‘आदर्श
जीवन प्रणाली‘ और ‘स्वावलम्बन‘ के ‘आर्थिक
दर्शन‘ का प्रणेता माना जाता है। लेकिन,
गांधी यहीं तक सीमित नहीं थे। उनका
‘अतीन्द्रिय ज्ञान‘ या कहें भविष्य को देख
लेने की अद्भुत क्षमता ने ‘यथार्थपूर्ण
कृषि दर्शन‘ भी दिया था। गांधी का कृषि
ज्ञान और खेती-किसानी की समझ और गांव के
स्वरूप की कल्पना यह साबित करने के लिए
काफी है कि वे सिर्फ मानव नहीं कोई
‘महामानव‘ थे।
गांधी ने सौ साल पहले गांव-किसान और खेती
के बारे में जो कहा वह आज सच हो रहा है।
हम जब उनके विचारों और चिंतन की गहराई में
उतरते हैं तो पता चलता है कि उस ‘महात्मा‘
ने तो सौ साल पहले ही कह दिया था कि अपनी
धरती माता को रासायनिक खादों के ‘विष‘ से
बचाओ, इससे हमारी धरती ‘विषैली‘ हो रही
है। गांवों को ‘यंत्रीकरण‘ और खेती को
‘ट्रैक्टर‘ से बचाओ, नहीं तो गांव और
किसान बरबाद हो जाएंगे। उनकी यही
भविष्यवाणियां आज सच साबित हो रही हैं। यही
सब तो आज हमारे कृषि वैज्ञानिक और नीति
आयोग कह रहे हैं। यही वजह है कि अब
रासायनिक खेती की जगह ‘जैविक‘ और
‘प्राकृतिक‘ खेती की बात हो रही है। यही
था गांधी का ‘कृषि दर्शन‘, जो हमें यह
मानने की प्रेरणा देता है कि गांधी केवल
स्वतंत्रता आन्दोलन के नेता नहीं बल्कि एक
‘वैश्ष्यिपूर्ण कृषि दर्शन‘ के प्रणेता थे
और इससे भी आगे कहें तो शायद ‘कृषि
वैज्ञानिक‘ ही थे। जिन्हें कृषि का
विज्ञान ईश्वरीय कृपा से ‘अवतरण‘ में मिला
था।
गांधी का कृषि और ग्रामीण दर्शन
प्रकृति को ‘वापसी‘ के सिद्धान्त का
अनुगामी है। वह कहते हैं कि प्रकृति से
जितना लो उसी अनुपात में उसे वापस भी करो।
आज हम भी वर्षा जल-संचयन और ‘वाटर
रीचार्जिंग‘ की बात कर रहे हैं। यही तो
गांधी ने भी कहा था, लेकिन हमने तब उनकी
बात को अनसुना किया। चेते तो तब जब मौसम
और पर्यावरण वैज्ञानिकों ने चेतावनी जारी
कर दी कि भूजल असीमित नहीं हैं। यदि
अत्यधिक दोहन नहीं रुका और फिर से रीचार्ज
की व्यवस्था नहीं हुई तो विश्व के सामने
गंभीर जल संकट होगा। हम इस खतरे को मूर्त
रूप लेते देख रहे हैं, जब पश्चिम उत्तर
प्रदेश और हरियाणा जैसे कृषि सम्पन्न
राज्यों में सौ से अधिक विकास खण्ड
‘डार्क‘ घोषित कर दिये गए हैं। यानि कि
इनमें भूमिगत जल स्तर संकट के स्तर पर
पहुंच गया है या उसके समीप है।
गांधी जी किसान के बारे में समग्र विचार
करते हैं और खेती के बारे में समयानुकूल
ज्ञान देते हैं। गांधी जी कहते हैं- किसान
मौसम की अनिश्चितताओं वगैरा का शिकार होता
है। परन्तु वह अपने परिश्रम, बुद्धि और
कुशलता से उनके साथ जूझ सकता है। अन्त में
वह किसी तरह निर्वाह करने के लिए सहायक
धन्धों का सहारा तो ले ही सकता है। उसे
निराशा अनुभव नहीं होती। इसलिए स्वभाव से
किसान और कारीगर का समाज शन्तिप्रिय होता
है। लेकिन, जहां तक किसान स्वभाव से
आक्रमणकारी नहीं है, वहां वह व्यक्तिगत
स्वतन्त्रता के लिए लड़ने वाला अत्यन्त
‘प्रचंड योद्धा‘ है। अन्न पैदा करने वाले
किसान आजादी के ‘अन्तिम दुर्ग‘ हैं। किसान
प्रकृति की प्रक्रियाओं में भाग लेता है।
उसने अनुभव से यह सीख लिया है कि इनकी गति
को जबरन कभी भी बढ़ाया नहीं जा सकता। इसलिए
उसकी मान्यताओं में स्थिरता और अविचलता आ
जाती है और इसमें धीरज,लगन और अध्यवसाय के
गुण उत्पन्न हो जाते हैं, जिनके कारण
राजनीतिक संग्रामों में संलग्न होने पर
वह ‘अजेय‘ बन जाता है। गांधी जी का मत था
कि किसानों और कारीगरों के प्राणवान
समुदायों पर आधारित समाज-व्यवस्था
लोकतान्त्रिक स्वतन्त्रता का वास्तविक
स्तम्भ सिद्ध होगी और भारत की ओर से कोई
आक्रमणकारी या विस्तारवादी वृत्ति अपनाने
के विरुद्ध स्वाभाविक आश्वासन रहेगी। ऐसी
समाज-व्यवस्था विश्वशान्ति का एक शक्तिशाली
साधन होगी।
महात्मा गांधी पूर्णाहुति ग्रंथ
के अनुसार गांधी जी की कृषि आधारित आर्थिक
व्यवस्था के मुख्य अंग ये हैं (1) सघन,
छोटे पैमाने की, व्यक्तिगत और विभिन्न फसलों
वाली खेती-जिसे सहकारी प्रयत्न का सहारा
हो, न कि यान्त्रिक और बडे पैमाने पर की
जाने वाली सामूहिक खेती, (2) खेती के
सहायक गृह-उद्योगों का विकास, (3) पशुओं
पर आधारित अर्थव्यवस्था जिसमें ‘लौटाने का
नियम‘ सख्ती से अमल में लाया जाये-यानि जो
कुछ धरती से निकाला जाये उसे सजीव रूप से
धरती को लौटा दिया जाये, (4) पशु, मानव और
वनस्पति-जीवन का ठीक सन्तुलन और एक-दूसरे
के लाभ के लिए उनका परस्पर सम्बन्ध, और
(5) सामाजिक योगक्षेम के लिए यंत्रों की
प्रतिस्पर्धा में मानव और पशु दोनों
शक्तियों की स्वेच्छा से रक्षा।
ग्रंथ में लेखक ने कहा है कि
गांधी के इस ‘कृषि और ग्रामीण दर्शन‘ को
कुछ ‘स्वयं को अधिक बुद्धिमान‘ मानने वाले
आलोचको ने इसे अप्रगतिशील,विज्ञान से पहले
का मध्यकालवाद, गोबर-युग में वापस जाना और
और बैलगाड़ी की मनोवृत्ति बताया था। सच बात
तो यह है कि गांधी जी अपने समय से बहुत आगे
थे। लेकिन, मूलतः वे ‘कर्मठ पुरुष‘ और
‘मौलिक विचारक‘ थे। इसलिए वे अपने विचारों
को जान-बूझ कर आम लोगों की ‘सादी भाषा‘ का
जामा पहनाना पसन्द करते थे। उन्हें इन्हीं
लोगों के द्वारा अपनी क्रान्ति को
कार्यान्वित करना था, इसलिए वे अपने विचारों
को प्रकट करने के लिए ‘शब्दाडंबरवाली‘
प्रचलित वैज्ञानिक भाषा का उपयोग नहीं करते
थे।
कृषि विज्ञान में हाल ही हुई प्रगति के
कारण लौटाने के नियम पर अधिकाधिक जोर दिया
जाने लगा है। एक अटल शर्त, जिसके आधार पर
मनुष्यों को प्रकृति पर राज करने दिया जाता
है, यह है कि वह अपने आसपास के वातावरण को
‘पहले से अधिक अच्छी स्थिति‘ में छोड़कर
जाय। इस नियम का थोड़ा सा भी ंभग होने से
प्रकृति ‘कठोर और तात्कालिक‘ न्याय करती
है। गांधी पूर्णाहुति ग्रंथ के लेखक ने
उनकी चेतावनी को इन शब्दों में उल्लेखित
किया है- विज्ञान की सहायता से मनुष्य
‘धरती की पूंजी‘ को ऐसी गति से ‘सम्पत्ति‘
में बदल रहा है कि उससे स्वयं सभयता के
भविष्य के लिए ही भारी खतरा पैदा हो गया
है। यहां यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है
कि अच्छे व्यवसाय ‘पूंजी में मुनाफा बांट
कर‘ कभी स्थिरता से नहीं चलाये जाते। ये
शब्द भूमि की अति दोहित होती उर्वरता और
जल के प्रति हैं।
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