दिल्ली
पुलिस ने आन्दोलन कर दिया । मांगों के लिए
वे सड़कों पर उतर आये । उन्होंने उसी
अन्दाज में आन्दोलन किया,जैसे कोई अन्य
कर्मचारी संगठन अपनी मांगों के लिए करता
है। उनकी मांगें एक दम जायज हैं। लेकिन,
मांगे मनवाने का यह तरीका क्या जायज है ?
अनुशासित कहे जाने वाले बलों में आन्दोलन
की प्रवृत्ति पनपना क्या उचित है ? सबसे
गंभीर बात यह है कि मंगलवार को दिल्ली
पुलिस के जवानों का प्रदर्शन उचित मांगों
से आगे बढ़कर पुलिस यूनियन बनाने की मांग
तक पहुंच गया। साथ ही वे उस तरह नारे लगा
रहे थे जैसे कोई राजनैतिक दल के कार्यकर्ता
हों। दस घण्टे चला पुलिस जवानों का
आन्दोलन हालांकि रात होते होते समाप्त हो
गया। अफसरों के आश्वासन पर वे अपने घरों
को लौट गए। किन्तु, अपने पीछे कई
अनुत्तरित प्रश्न छोड़ गए। पहला सवाल यह
है कि इतना बड़ा प्रदर्शन हो गया और दिल्ली
पुलिस के अफसर इससे आखिरी क्षण तक बेखबर
रहे। उन्हें आन्दोलन होने की सूचना होना
तो दूर भनक तक नहीं लगी। क्या यह आन्दोलन
बगैर किसी संगठित तंत्र के संभव था ? इसमें
जिस तरह समूची दिल्ली की पुलिस जुटी वह
सोशल मीडिया के सुनियोजित और सुसंगठित
प्रयोग के बिना संभव नहीं था। दिल्ली
पुलिस के जवानों के परिवारों और
सेवानिवृत्त पुलिसकर्मियों ने भी इसमें
बढ़चढकर हिस्सा लिया। इससे भी साबित होता
है कि योजना बनती रही और अफसर गहरी नींद
सोते रहे। अगर अफसरों को इसकी भनक थी, और
वे चाहते थे, कि आक्रोश बाहर आये तो यह और
अधिक गंभीर मामला है। जिस दिल्ली पुलिस ने
यह आन्दोलन किया वह किसी सामान्य राज्य की
पुलिस नहीं है। यह देश की राजधानी की
पुलिस है। इस पर राजधानी की सुरक्षा
व्यवस्था और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी
है। इस आन्दोलन के कारण मंगलवार को दिल्ली
भगवान भरोसे थी। वह भी ऐसे समय पर जब
कानून व्यवस्था के लिए यह समय अत्यन्त
संवेदनशील है। अयोध्या प्रकरण में
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने वाला है।
चारों तरफ गहमा गहमी है। आतंकवादियों के
देश की सीमा में घुसपैठ करने की सूचना है।
ऐसे समय पर कोई पुलिस बल हथियार छोड़ कर
और वर्दी उतार कर सड़कों पर आ जाए तो इससे
गंभीर बात और कोई नहीं हो सकती। इसका जवाब
जहां दिल्ली पुलिस के वरिष्ठ अफसरों को
देना होगा। इसके लिए अफसरों की जिम्मेदारी
निर्धारित करके कार्रवाई करने की जरूरत
है। प्रदर्शन हो गया और जवान आश्वासन से
मान गए। यह समूचे घटनाक्रम का एक पहलू है।
लेकिन, इसका दूसरा पहलू यह भी है कि क्या
इससे देश के अन्य राज्यों की पुलिस को भी
जरूरत पड़ने पर आन्दोलन का यह रास्ता नहीं
दिखा दिया गया। क्या अब अनुशासित बल किसी
भीड़ बल में तब्दील होकर सड़कों पर उतरते
रहेंगे ? दिल्ली पुलिस के आन्दोलन की
केन्द्र सरकार को जांच करानी चाहिए। इसके
लिए आयोग बनाये जाने की जरूरत है। देश को
यह जानने का हक है कि क्यों पुलिस के जवान
सड़कों पर उतरे? वकील-पुलिस संघर्ष में
क्यों पुलिसकर्मियों पर जल्दबाजी में
कार्रवाई हुई ? एकतरफा कार्रवाई पर पुलिस
अफसर मौन क्यों रहे ? दिल्ली उच्च
न्यायालय में पुलिस का पक्ष ठीक से क्यों
नहीं रखा गया ? अदालत का फैसला आने के बाद
भी उस पर पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की
कोई कोशिश क्यों नहीं हुई ? इन्हीं कारणों
से दिल्ली पुलिस में आक्रोश पनपा था। यदि
समय रहते इन बातों पर ध्यान दिया जाता तो
दिल्ली पुलिस का आक्रोश आन्दोलन में
तब्दील नहीं होता।
( उप्रससे ) |