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मनीष
श्रीवास्तव
लखनऊ, 06 मार्च। (उ.प्र.समाचार सेवा)।Lucknow,
06 March 2012,
(U.P.S.S).
जिन मुद्दों को लेकर वर्ष 2007 में
बहुजन समाज पार्टी पूर्ण बहुमत ने सत्ता
पर कब्जा किया था उसी हथियार को अपना आधार
बना समाज वादी पार्टी ने भी उत्तर प्रदेश
की सत्ता पर कब्जा कर लिया वो भी रिकार्ड
बहुमत के साथ। जिस प्रकार मायावती और उनके
नेताओं ने सपा पर गुण्डागर्दी, भ्रष्टाचार
और कुशासन जैसे मुद्दों को जनता के सामने
रखकर चुनाव जीता और उन्होने जिस प्रकार
जनता को इस बात का विश्वास दिलाया था कि
प्रदेश में अब कहीं भी भ्रष्टाचार कुशासन
और गुण्डागर्दी नहीं होगी अपने वायदे पर
कायम नहीं रह सकी और उसके तमाम उदाहरण
सामने हैं। क्या कारण था कि बसपा को हार
का सामना करना पड़ा।
कहते हैं इतिहास अपने को दुहराता है जिस
प्रकार हमलावर होकर बसपा ने वर्ष 2007 में
सपा से सत्ता हस्तगत की थी उसी प्रकार सपा
ने बसपा पर वही आरोप लगाए जो कभी बसपा ने
सपा पर लगाए थे अन्तर इतना था कि सपा का
यह हमला बसपा के पूरे शासन काल तक चला था
और उसी का परिणाम सपा को मिला और उसने
पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर कब्जा किया।
बहुजन समाज पार्टी जो दलित वोटों के सहारे
सत्ता पर पुन: काबिज होने का सपना संजोए
थी दरअसल वही दलित बसपा शासन काल में सबसे
ज्यादा असुरक्षित अपने को महसूस करने लगे
थे उनका मानना था कि मायावती केवल लखनऊ
में रहकर दलितों का उत्थान करने का काम कर
रही हैं जो किसी भी दशा में ठीक नहीं था।
मायावती अपने राज में सुरक्षा का ऐसा ही
आश्वासन मुसलमानों एवं अन्य पिछड़े समुदायों
के मन में नहीं बैठा सकीं। बसपा को अगर
लंबे समय तक शासन करना था तो उसका एकमात्र
कारगर फार्मूला वह सामाजिक गठबंधन ही हो
सकता है जिसमें दलित एवं अन्य वंचित तथा
असुरक्षा की भावना के साथ जीने वाले तबके
शामिल हों, इसके विपरीत 2007 में मायावती
सर्वजन के नारे के साथ सत्ता में आईं
लेकिन वह एक तात्कालिक मकसद हासिल करने के
लिए हुआ गठजोड़ था, जिसका बिखर जाना
स्वाभाविक था।
मायावती ने पांच साल पहले जो अतिरिक्त वोट
अपने साथ जोड़ा थाए वह इस बार उनका साथ
छोड़ गया। आम तौर पर यह सवर्ण जातियों है।
सवर्ण जातियों और ओबीसी की अगड़ी जातियों
ने मायावती को हराने के मकसद से मतदान किया
जिनके साथ मुसलमान भी जुड़ गए। यह समझने
की बात है कि आखिर इन जातियों में बसपा से
मुक्ति पाने की ऐसी बेसब्री क्यों थी। यह
इसीलिए थी कि मायावती के मुख्यमंत्री की
कुर्सी पर होने से जमीनी स्तर पर जातीय
संबंधों में साफ फर्क पड़ रहा था।
अनुसूचित जाति-जनजाति कानून दलित जातियों
की सुरक्षा का कवच बना। पुलिस इस कानून के
तहत मुकदमे दर्ज करने से इनकार नहीं कर
सकती थी। सरकारी पदों पर दलितों की हुई
नियुक्तियों ने भी सवर्ण एवं मध्य जातियों
में विरोध भाव पैदा किया। महात्मा गांधी
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून के तहत
ज्यादातर दलितों को काम मिले जिससे उनकी
भूपतियों के यहां काम करने की पहले जैसी
मजबूरी नहीं रह गई। वे ज्यादा मजदूरी
मांगने लगे।
यह सियासी सूरत हमें इस नतीजे पर पहुंचाती
है कि सर्वजन जैसी धारणाएं तभी तक चल सकती
हैं जब वे प्रभावशाली तबकों के हित में
काम करती हों। मायावती अगर चाहें तो यह
कड़वा सबक अब ग्रहण कर सकती हैं। उन्हें
यह समझना होगा कि व्यक्ति
केंद्रित-नारेबाजी पर आधारित राजनीति के
अधिकतम फायदे वे प्राप्त कर चुकी हैं।
मायावती ने अपने पूर्व शासकों की तुलना
में कोई खराब प्रशासन नहीं दिया। बल्कि
उनके सख्त प्रशासन से राज्य में टैक्स एवं
कर्ज की वसूली बेहतर ढंग से हुई। मायावती
की मुश्किल यह है कि वे अब तक प्रतीकों और
नारेबाजी की राजनीति से आगे नहीं निकल पाई
हैं। जबकि वक्त आगे बढ़ गया है। बसपा का
भविष्य कांशीराम की विरासत से आगे जाने
में है। लेकिन मायावती में यह करने की
क्षमता या इच्छाशक्ति बची है या नहीं यह
तो आने वाला समय ही बातएगा फिलहाल इसका
प्रमाण हमारे सामने नहीं हैं।
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