जीवन है अभी और यही। जीवन है क्षण-क्षण
में, जीवन है पल-पल में, लेकिन मनुष्य का
चित्त सोचता है पीछे की, मनुष्य का चित्त
सोचता है आगे की। और यह जो चित्त का चिंतन
है जब काम से संबंधित होता है तो मनुष्य
का चित्त सोचता है उन काम-संबंधों के विषय
में, उन यौन अनुभवों sex experiences के
संबंध में जो पीछे घटित हुए हैं। और उन
यौन संबंधों की कल्पना करता है, जो आगे
घटित होंगे, हो सकते हैं,होने की आकांक्षा
है। और जब चित्त इस तरह के चिंतन में खो
जाता है पीछे और आगे, तो शारीरिक वीर्य कण
तो नष्ट नहीं होते,लेकिन जिस यौन ऊर्जा
sex energy की,जिस काम ऊर्जा की,जिस
साइकिक इनर्जी की मैंने बात कही है, वह
नष्ट होनी शुरु हो जाती है। शरीर के वीर्य
कण तो वास्तविक संभोग sexual
intercourse में नष्ट होंगे,लेकिन मन की
ऊर्जा चिंतन मे ही नष्ट होने लगती है।
सेक्स चिंतन से
नष्ट होती है मन की ऊर्जा
इसलिए भाव से भी जो काम का चिंतन करता है,
वह अपनी ऊर्जा को अधोगामी करता है। भाव से
भी, विचार से भी। एक रत्ती भर शक्ति शरीर
नहीं खो रहा है, सिर्फ सोच रहा है, उन
संभोगों के संबंध में जो उसने किये, या उन
संभोगों के संबंध मे जो वह करेगा, सिर्फ
चिंतन कर रहा है। पर इतना चिंतन भी मन की
ऊर्जा के विनाश के लिए काफी है। मन की
ऊर्जा तो विनष्ट होनी शुरु हो जाएगी। और
मन की यह ऊर्जा ही असली ऊर्जा है। संभोग
से तो सिर्फ शरीर के ही कुछ कण खोते हैं,
लेकिन मन के संभोग से, इस मेंटल सेक्स
Mental Sex से, इस मानसिक यौन से,मन की
विरोट ऊर्जा नष्ट होती है। शरीर तो आज नहीं
कल पूरा ही नष्ट हो जाएगा। शरीर उतना
चिंतनीय नहीं है,चूंकि मन की जो ऊर्जा है
वह अगले जन्म मे भी आपके साथ होगी।उस ऊर्जा
की असली सवाल है।
अधिक तनाव में बढ़ती है सेक्स की जरूरत
इसलिए जब मैने यह कहा कि जो व्यक्ति पल-पल
जीता है- न पीछे की सोचता है न आगे की
सोचता है काम के संबंध मे- तो वह आगे की
भी नहीं सोचता, और पीछे की भी नहीं सोचता,
वही पल-पल जीता है। उसकी मानसिक ऊर्जा के
विसर्जन का कोई उपाय नहीं रह जाता।
और भी एक मजे की बात है कि जो आदमी अतीत
की चिंता कम करता है, भविष्य की चिंता कम
करता है, जो सामने होता है उसी को करता
है, उसी में पूरा डूबकर जीता है, उसकी
जिंदगी में तनाव, टेंशन कम हो जाते हैं।
और जितना तनाव कम हो उतनी सेक्स की जरूरत
need of sex कम हो जाती है। जितना तनाव
ज्यादा हो उतनी सेक्स की जरूरत बढ़ जाती
है, क्योंकि सेक्स रिलीफ का काम करने लगता
है। वह तनाव को बिखेरने का काम करकने लगता
है।
अतीत और भविष्य की बहुत ज्यादा चिंता
तनावग्रस्त करती है, टेंशन पैदा करती है।
वर्तमान में जिए जाना तनावमुक्त करता है।
जो आदमी अपने बगीचे में गढ्ढा खोद रहा है
तो गढ्ढा ही खोद रहा है। जो आदमी खाना खा
रहा है तो खाना ही खा रहा है। जो आदमी सोने
गया है तो सोने ही गया है, दफ्तर में है
तो दफ्तर में है, घर में है तो घर मे है,
जिससे मिल रहा है उससे मिल रहा है, जिससे
बिछुड़ गया है उससे बिछुड़ गया है। जो आदमी
आगे पीछे बहुत समेट कर नहीं चलता है, उसके
चित्त पर इतने कम भार होते हैं कि उसकी
काम की जरूरत निरंतर कम हो जाती है।
विश्राम नहीं है
शिथिलता
तो दो कारणों से मैंने ऐसा कहा, एक तो
चिंतन करने से काम के, मानसिक ऊर्जा
विनष्ट होती है। दूसरा अतीत और भविष्य की
कामनाओं में डूबे होने से तनाव इकट्ठे होते
हैं। और जब तनाव ज्यादा इकट्ठे हो जाते
हैं,तो शरीर को अनिवार्य रूप से अपनी शक्ति
कम करनी पड़ती है। शक्ति कम करके जो
शिथिलता अनुभव होती है उस शिथिलता में
विश्राम मालूम पड़ता है। शिथिलता को हम
विश्राम समझे हुए हैं। थक कर गिर जाते हैं
तो सोचते हैं आराम हुआ। थक कर टूट जाते
हैं तो लगता है,अब सो जाएं, अब चिंता नहीं
रही। चिंता के लिए भी शक्ति चाहिए।
लेकिन चिंता ऐसी शक्ति है जो भंवर बन गई
और जो पीड़ा देने लगी। अब उस शक्ति को
बाहर फेंक देना पड़ेगा।उस शक्ति को हम
निरंतर बाहर फेंक रहे हैं। और हमारे पास
शक्ति को बाहर फेंकने का एक ही उपाय दिखाई
पडता है। क्योंकि ऊपर जाने का तो हमारे मन
में कोई ख्याल नहीं है। नीचे जाने का
एकमात्र बंधा हुआ मार्ग है।
इसलिए जो व्यक्ति चिंता नहीं करता, अतीत
की स्मृतियों में नहीं डूबा रहता, भविष्य
की कल्पनाओं में नहीं डूबा रहता, जीता अभी
और यहीं वर्तमान में,... तो बहुत शीघ्र उस
शक्ति का ऊपर प्रवाह शुरु हो जाता है। और
जैसी धन्यता उस प्रवाह मे अनुभव होती है
वैसी जीवन में और कभी अनुभव नहीं होती।
( आलेखः साभार- ज्यों
की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया, प्रवचन
12-संस्करण 1991)
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